# नौकरी को लेकर हिचकिचाहट का इजहार न करें। इंटरव्यू अपनी बात सख्ती से रखने का मंच नहीं है। आप वहां इंटरव्यू लेने वालों को राजी करने के लिए हैं कि आप ही इस नौकरी के लिए सबसे सही उम्मीदवार हैं। आपके हावभाव से ऊर्जा और उत्साह दिखना चाहिए। इंटरव्यू लेने वालों को यह बताना होगा कि आप इस नौकरी के लिए बेहद उत्साहित हैं और इसके लिए ज्यादा मेहनत भी करेंगे। आपको नौकरी को लेकर कोई शक है या फिर आप दूसरी जगहों पर भी इंटरव्यू दे रहे हैं तो इसका जिक्र न करें। जिन बातों का आप पर प्रभाव पड़ेगा उनके बारे में सवाल पूछ कर अपनी हिचकिचाहत दूर कर लें, लेकिन कभी भी ऐसा नहीं लगे कि आप इंटरव्यू लेने वाले से उसके लेवल पर बात कर रहे हैं। # अपनी बात को अच्छे से पेश करने और झूठ बोलने में थोड़ा फर्क है। यह बात अच्छी तरह समझ लें कि इस अंतर को आपको बहुत सावधानी से खत्म करना है। जिस फील्ड में आप नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हैं, उसका अनुभव आपके पास नहीं हैं, तो कोई ऐसा तरीका तलाशें, जिससे आप अपने अनुभव को उस नौकरी से जोड़ सकें। उदाहरण के लिए एक शख्स ने जब वकालत की पढ़ाई करने के बाद पब्लिक रिलेशन के क्षेत्र में नौकरी करने का फैसला किया, तो उसने अपने बायोडाटा में स्टूडेंट क्लब में अपनी लीडरशिप वाली पोजीशन का जिक्र किया और उनसे मिली उन स्किल्स को भी रेखांकित किया, जिससे उसे पब्लिक रिलेशन के फील्ड में मदद मिलती। किसी भी मौके पर झूठ मत बोलिए। अगर आपको पास योग्यता, डिग्री या पहले कोई नौकरी नहीं थी तो इसके बारे में गलत जानकारी मत दें। इंटरव्यू लेने वाला आपसे ज्यादा अनुभवी होगा और वह जब इस बारे में आपसे सवाल पूछेगा तो आप कुछ बता नहीं पाएंगे। अगर आपका झूठ सामने आ गया तो आप मुश्किल में भी पड़ सकते हैं। # इंटरव्यू अपने लिए किसी खास चीज की मांग या कोई उपकार चाहने का वक्त नहीं होता। उस समय अपनी सीमाओं, आने वाली छुट्टियों या फिर किसी नकारात्मक बात का जिक्र न करें। आपको ऐसा दिखना चाहिए कि आप नौकरी को लेकर बेहद उत्साहित हैं और आपसे जो भी कहा जाएगा आप उस जिम्मेदारी को अच्छी तरह निभाएंगे। एक बार नौकरी आप को मिल जाए उसके बाद आप अपनी जरूरत की चीजों के लिए बात शुरू कर सकते हैं। यह कहने का मतलब यह नहीं कि आप झूठ बोल कर नौकरी हासिल करें। आपसे अगर सीधे-सीधे कोई ऐसा काम करने के बारे में पूछा जाए जो आप नहीं कर सकते तो इस बारे में ईमानदारी से जवाब दें। उदाहरण के लिए, अगर पूछा जाए कि आप संडे को ऑफिस में काम कर सकते हैं? और आप जानते हैं कि आर संडे को काम नहीं कर सकते तो ऐसा उन्हें बता दीजिए लेकिन इसके साथ ही उन्हें यह विकल्प भी दे दीजिए कि आप ई-मेल पर उपलब्ध रहेंगे या फिर सप्ताहांत में देर तक रुककर काम कर सकते हैं। # एप्लीकेशन भेजने के बाद कॉल न आए तो इसकी कई वजहें हो सकती हैं। अधिकतर ओपन पोजिशन के लिए संभावित उम्मीदवारों की तरफ से काफी बायोडाटा आते हैं। इसकी संभावना रहती है कि जिस व्यक्ति के पास बायोडाटा छांटने की जिम्मेदारी हो, उसके पास कई दूसरी जिम्मेदारियां भी हों। हो सकता है कि बायोडाटा खो जाए। ऐसे में आप मामले को अपने हाथ में लें और खुद इंटरव्यू लेने वाले को कॉल कर जानकारी प्राप्त करें। एप्लीकेशन के लिए दी गई गाइडलाइन्स में इसका जिक्र हो कि, 'कृपया फोन न करें', तब आप फॉलोअप ई-मेल भेज सकते हैं। आप हर 3-4 दिन पर फोन करके इस संबंध में हुई प्रगति की जानकारी ले सकते हैं। कोशिश करने से बात जरूर बन जाती है। # आप समय के पाबंद हैं। यह एक अच्छी बात है, लेकिन क्या आपको पता है कि इंटरव्यू के लिए समय से बहुत पहले पहुंचना भी भारी भूल है? आपको तय समय पर बुलाने के पीछे कोई कारण होगा। संभव है इंटरव्यू लेने वाला तय समय से पहले किसी और काम में व्यस्त हो। आप समय से पहले पहुंचेंगे तो सामने वाले को आपसे मिलने के लिए अपना काम जल्दी-जल्दी निपटाना पड़े, ऐसे में हो सकता है कि उसका मूड आपका इंटरव्यू शुरू होने से पहले ही खराब हो जाए। इंटरव्यू के लिए तय समय के दस मिनट पहले तक पहुंचना ठीक हैं। # इंटरव्यू के दौरान आप सवाल को दूसरे तरह से शुरू करते हुए अपना जवाब दे सकते हैं। 'मुझे नहीं पता' या 'ऐसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ।' अगर इंटरव्यू लेने वाले ने कोई ऐसा सवाल पूछ लिया, जो आप पर लागू नहीं होता, तो भी सवाल को सीधे-सीधे खारिज मत कीजिए। इसके बजाए यह सोचिए कि सवाल के पीछे उनकी मंशा क्या है। आप ऐसे अपना जवाब दे सकते हैं, 'मेरे साथ ऐसी घटना तो पहले नहीं हुई, लेकिन एक बार इसी से मिलता-जुलता वाकया जरूर हुआ था..।' या फिर 'अगर मेरे सामने ऐसी स्थिति आई तो मैं कुछ ऐसे इसे संभालूंगा..।' # अंत में जब इंटरव्यू लेने वाला आपसे पूछे कि आप कुछ पूछना चाहेंगे तो आप कोई सवाल पूछ सकते हैं। अगर आप कोई सवाल नहीं पूछते हैं, तो इससे यह संकेत जाएगा कि आप रुचि नहीं ले रहे हैं। अगर आपके पास सच में कोई सवाल नहीं है तो आप यह पूछ सकते हैं कि यहां अगर आपको नौकरी मिलती है तो दिन का शेड्यूल क्या होगा? जो भी पूछे वह इंट्रेस्टिंग होना चाहिए। यह दिखाइए कि आप इस क्षेत्र में काम करने की संभावना से उत्साहित हैं। आप चाहें तो तारीफ के एक-दो वाक्य से शुरुआत कर सकते हैं। आपको लगता है कि आपके सारे सवालों का जवाब मिल चुका है तो आप इस बात की तारीफ कर सकते हैं कि उन्होंने बहुत अच्छे से इंटरव्यू लिया। # इंटरव्यू लेने वाले पर अपना प्रभाव डालने और उन्हें याद रहने के लिए इंटरव्यू के बाद फॉलोअप जरूर करें। आप इंटरव्यू लेने वाले को समय देने के लिए धन्यवाद का ई-मेल भेज सकते हैं। आप इसमें पोजिशन को लेकर उत्साह दिखा सकते हैं और इस बात के लिए कुछ दलील भी दे सकते हैं कि आप इस पद के लिए क्यों उपयुक्त रहेंगे। अगर इंटरव्यू के बाद आपको लगता है कि यह पद आपके लिए नहीं है तो भी आप इंटरव्यू लेने वाले को ई-मेल कर इस बात की जानकारी दे सकते हैं। वह अपना समय न बर्बाद करने और आपकी साफगोई और ईमानदारी के लिए आपकी तारीफ करेगा। अगर भविष्य में कभी आपकी उनसे मुलाकात हुई तो अच्छी वजहों से आप उन्हें याद रहेंगे। आप इंटरव्यू लेने वाले को थैंक्यू कार्ड भी भेज सकते हैं। आजकल इसका चलन लगभग न के बराबर होता है इसलिए आप कुछ अलग दिखेंगे। हां, इस मौलिक बात को मत भूलिए कि अच्छे कपड़े पहनें, गर्मजोशी से हाथ मिलाएं और अपने साथ बायोडाटा लेकर जाएं। |
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Tuesday, November 13, 2012
8 Tips ताकि बेकार न जाए JOB इंटरव्यू
Thursday, October 18, 2012
गर गरीब ना होंगे तो राजनीति किसके नाम पर होगी?
अनाथ एवं जरूरतमंद बच्चो की मदद करे
विश्व खाद्य दिवस
कहीं मोटापा, कहीं भुखमरी का दंश
Monday, October 15, 2012
भू जल रिचार्ज
नलकूपों द्वारा रिचार्जिंग: छत से एकत्र पानी को स्टोरेज टैंक तक पहुंचाया जाता है। स्टोरेज टैंक का फिल्टर किया हुआ पानी नलकूपों तक पहुंचाकर गहराई में स्थित जलवाही स्तर को रिचार्ज किया जाता है। इस्तेमाल न किए जाने वाले नलकूप से भी रिचार्ज किया जा सकता है।
गड्ढे खोदकर: ईंटों के बने ये किसी भी आकार के गड्ढे होते हैं। इनकी दीवारों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर सुराख बनाए जाते हैं। गड्ढे का मुंह पक्की फर्श से बंद कर दिया जाता है। इसकी तलहटी में फिल्टर करने वाली वस्तुएं डाल दी जाती हैं।
सोक वेज या रिचार्ज साफ्ट्स: इनका इस्तेमाल वहां किया जाता है जहां की मिट्टी जलोढ़ होती है। इसमें 30 सेमी ब्यास वाले 10 से 15 मीटर गहरे छेद बनाए जाते हैं। इसके प्रवेश द्वार पर जल एकत्र होने के लिए एक बड़ा आयताकार गड्ढा बनाया जाता है। इसका मुंह पक्की फर्श से बंद कर दिया जाता है। इस गड्ढे में बजरी, रोड़ी, बालू इत्यादि डाले जाते हैं।
खोदे गए कुओं द्वारा रिचार्जिंग: छत के पानी को फिल्ट्रेशन बेड से गुजारने के बाद इन कुंओं में पहुंचाया जाता है। इस तरीके में रिचार्ज गति को बनाए रखने के लिए कुएं की लगातार सफाई करनी होती है।
खाई बनाकर: जिस क्षेत्र में जमीन की ऊपरी पर्त कठोर और छिछली होती है, वहां इसका इस्तेमाल किया जाता है। जमीन पर खाई खोदकर उसमें बजरी, ईंट के टुकड़े आदि भर दिया जाता है। यह तरीका छोटे मकानों, खेल के मैदानों, पार्कों इत्यादि के लिए उपयुक्त होता है।
रिसाव टैंक: ये कृत्रिम रूप से सतह पर निर्मित जल निकाय होते हैं। बारिश के पानी को यहां जमा किया जाता है। इसमें संचित जल रिसकर धरती के भीतर जाता है। इससे भू जल स्तर ऊपर उठता है। संग्र्रहित जल का सीधे बागवानी इत्यादि कार्यों में इस्तेमाल किया जा सकता है। रिसाव टैंकों को बगीचों, खुले स्थानों और सड़क किनारे हरित पट्टी क्षेत्र में बनाया जाना चाहिए.
पानी की खातिर… रेनवाटर हार्वेस्टिंग भारत की बहुत पुरानी परंपरा है। हमारे पुरखे इसी प्रणाली द्वारा अनमोल जल संसाधन का मांग और पूर्ति में संतुलन कायम रखते थे। .............................................................. जल संचय के साथ जरूरी है जल स्रोतों का रखरखाव जल संचय के साथ जरूरी है जल स्रोतों का रखरखाव
हमारे शहरों में पानी की मांग तेजी से बढ़ रही हैं। तेजी से बढ़ती हुई शहरी जनसंख्या का गला तर करने के लिए हमारी नगरपालिकाएं आदतन कई किमी दूर अपनी सीमा से परे जाकर पानी खींचने का प्रयास कर रही हैं। लेकिन हमारी समझ में यह नहीं आता है कि आखिर सैकड़ों किमी दूर से पानी खींचने का यह पागलपन क्यों किया जा रहा है? इसका प्रमुख कारण हमारे शहरी प्लानर, इंजीनियर, बिल्डर और आर्किटेक्ट हैं जिन्हें कभी नहीं बताया जाता कि कैसे सुलभ पानी को पकड़ा जाए। उन्हें अपने शहर के जल निकायों की अहमियत को समझना चाहिए। इसकी जगह वे लोग जल निकायों की बेशकीमती जमीन को देखते हैं, जिससे जल स्नोत या तो कूड़े-करकट या फिर मलवे में दबकर खत्म हो जाते हैं।
देश के सभी शहर कभी अपने जल स्नोतों के लिए जाने जाते थे। टैंकों, झीलों, बावली और वर्षा जल को संचित करने वाली इन जल संरचनाओं से पानी को लेकर उस शहर के आचार विचार और व्यवहार का पता लगता था। लेकिन आज हम धरती के जलवाही स्तर को चोट पहुंचा रहे हैं। किसी को पता नहीं है कि हम कितनी मात्रा में भू जल का दोहन कर रहे हैं। यह सभी को मालूम होना चाहिए कि भू जल संसाधन एक बैंक की तरह होता है। जितना हम निकालते हैं उतना उसमें डालना (रिचार्ज) भी पड़ता है। इसलिए हमें पानी की प्रत्येक बूंद का हिसाब-किताब रखना होगा।
1980 के शुरुआती वर्षों से सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट रेनवाटर हार्वेस्टिंग संकल्पना की तरफदारी कर रहा है। इसे एक अभियान का रूप देने से ही लोगों और नीति-नियंताओं की तरफ इसका ध्यान गया। देश के कई शहरों ने नगरपालिका कानूनों में बदलाव कर रेनवाटर हार्वेस्टिंग को आवश्यक कर दिया। हालांकि अभी चेन्नई ही एकमात्र ऐसा शहर है जिसने रेनवाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली को कारगर रूप से लागू किया है।
2003 में तमिलनाडु ने एक अध्यादेश पारित करके शहर के सभी भवनों के लिए इसे जरूरी बना दिया। यह कानून ठीक उस समय बना जब चेन्नई शहर भयावह जल संकट के दौर से गुजर रहा था। सूखे के हालात और सार्वजनिक एजेंसियों से दूर हुए पानी ने लोगों को उनके घर के पीछे कुओं में रेनवाटर संचित करने की अहमियत समझ में आई।
यदि किसी शहर की जलापूर्ति के लिए रेनवाटर हार्वेस्टिंग मुख्य विकल्प हो, तो यह केवल मकानों के छतों के पानी को ही संचित करने तक ही नहीं सीमित होना चाहिए। वहां के झीलों और तालाबों कासंरक्षण भी आवश्यक रूप से किया जाना चाहिए। वर्तमान में इन संरचनाओं को बिल्डर्स और प्रदूषण से समान रूप में खतरा है। बिल्डर्स अवैध तरीके से इन पर कब्जे का मंसूबा पाले रहते हैं वहीं प्रदूषण इनकी मंशा को सफल बनाने की भूमिका अदा करता है।
इस मामले में सभी को रास्ता दिखाने वाला चेन्नई शहर समुद्र से महंगे पानी के फेर में कैद है। अब यह वर्षा जल की कीमत नहीं समझना चाहता है। अन्य कई शहरों की तर्ज पर यह भी सैकड़ों किमी दूर से पानी लाकर अपना गला तर करना चाह रहा है। भविष्य में ऐसी योजना शहर और देश के लिए महंगी साबित होगी। ……………………………………………………….. दृढ़ इच्छाशक्ति से ही निकलेगा समाधान घोर जल संकट चिंता का विषय है। आखिर करें तो क्या करें। वर्षा जल संचय का मतलब बरसात के पानी को एकत्र करके जमीन में वापस ले जाया जाए। 28 जुलाई 2001 को दिल्ली के लिए तपस की याचिका पर अदालत ने 100 वर्गमीटर प्लॉट पर रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम (आरडब्ल्यूएच) अनिवार्य कर दिया। उसके बाद फ्लाईओवर और सड़कों पर 2005 में इस प्रणाली को लगाना जरूरी बनाया गया। लेकिन हकीकत में कोई सामाजिक संस्था इसको लागू करने के लिए खुद को जिम्मेदार नहीं मानती है। सीजीडब्ल्यूए को नोडल एजेंसी बनाया गया था लेकिन उनके पास कर्मचारी और इच्छाशक्ति में कमी है। इस संस्था ने अधिसूचना जारी करने और कुछ आरडब्ल्यूएच के डिजाइन देने के अलावा कुछ नहीं किया है। एमसीडी, एनडीएमसी के पास इस बारे में तकनीकी ज्ञान नहीं है। दिल्ली जलबोर्ड में इच्छाशक्ति की कमी है। वे सीजीडब्ल्यूए को दोष देकर अपनी खानापूर्ति करते हैं। हमारे पूर्वजों ने बावड़ियां बनवाई थी। तालाब बनवाए थे। जिन्हें कुदरती रूप से आरडब्ल्यूएच के लिए इस्तेमाल किया जाता था। सरकार चाहे तो इनसे सीख ले सकती है। आज 12 साल बाद भी सरकार के पास रेनवाटर हार्वेस्टिंग को लेकर कोई ठोस आंकड़ा नहीं उपलब्ध है। सरकार को नहीं पता है कि कितनी जगह ऐसी प्रणाली काम कर रही है। केवल कुछ आर्थिक सहायता देने से ये कहानी आगे नहीं बढ़ेगी। इच्छाशक्ति होगी तो रास्ता भी आगे निकल आएगा। किसी एक संस्था को जिम्मेदार बनाना पड़ेगा और कानून को सख्त करने की जरूरत होगी। एक ऐसी एजेंसी अनिवार्य रूप से बनाई जानी चाहिए जहां से जनता रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम से जुड़ी सभी जानकारियां ले सके। जागरूकता ही सफलता हासिल होगी। |
Sunday, October 14, 2012
लड़कियों की आज़ादी या बर्बादी
बाप को कुत्ते की चेन में बांधकर रखा कलयुगी बेटे ने
Sunday, September 30, 2012
वरिष्ठ नागरिकों को प्राप्त सरकारी सुविधाएँ
150 महिलाओं से ठगी
भारत में अधिकतर बुजुर्ग अपने बेटों की गालियां झेलते हैं
Monday, August 13, 2012
किसी भी चीज की अति बुरी होती है
मानवतावादी और उनका मानवधर्म
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मनुष्य का मूल स्वभाव धार्मिक होता है| कोई भी मनुष्य धर्म से पृथक होकर नहीं रह सकता| मनुष्य के अन्दर आत्मा का वास होता है जो की परमात्मा का अंश होती है| फिर मनुष्य धर्म और ईश्वर से अलग कैसे हो सकता है| मनुष्य का मूल अध्यात्म है और रहेगा| इस दुनिया की कोई भी चीज चाहे वो सजीव हो या निर्जीव, अपनी प्रकृति के विपरीत आचरण करके ज्यादा दिनों तक अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकती| जो मनुष्य अपनी मूल प्रकृति के विपरीत आचरण शुरू कर देते हैं उनका अंत हो जाता है| ये अंत भौतिक नहीं बल्कि आतंरिक होता है| मनुष्य अपनी काया से तो जीवित दिखता है परन्तु उसकी मानवता मर जाती है| वो पशु से भी बदतर हो जाता है|
मानवता के नाम पर चलनेवाले गोरखधंधे में सब कुछ होता है| दानवता का नंगा नाच देखना हो तो उन लोगों को देखिये जिन्होंने धर्म को त्याग दिया है| ऐसे लोग खुलेआम आधुनिकता की अंधी दौड़ का समर्थन करते मिलेंगे| उनके लिए प्रेम महज एक वासनापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं| शीलता को छोड़ के भौंडेपन का प्रचार भी यही मानवतावादी करते हैं| मर्यादाहीनता को निजी मामला बताना हो अथवा हिंसा के प्रति दोहरा रवैया, सब इन्हीं कथित मानवतावादियों की देन है| नशीली वस्तुओं यथा शराब, ड्रग्स आदि इनके लिए मनोरंजन के साधन मात्र हैं| दूसरों को स्वार्थ से दूर रहने की शिक्षा देने वाले ये लोग स्वार्थ में आकंठ डूबे रहते हैं| आज अगर छीनने की भावना बढ़ी है तो इसका कारण यही मानवतावादी हैं जो अपनेआप को सफलता के उस शिखर पर देखना चाहते हैं जहाँ कोई और न पहुंचा हो|
धर्म तो जीवन है| शाश्वत है, सत्य है| इसको नकारना अपनी अल्पबुद्धि का परिचय देने से अधिक और कुछ भी नहीं है| कोई स्वयं को ही नकारे तो इसे और क्या कहा जायेगा| संसार में आज अगर अपराध है तो उसका कारण लोभ है, वासना है| दुनिया में जो सिर्फ एक आगे निकलने की भावना बढ़ी है उसका कारण मनुष्य की अनंत इच्छाएं हैं| मनुष्य आज स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पा रहा है तो इसकी एकमात्र वजह मनुष्य का धर्म से दूर होना है| अपने मन पर नियंत्रण अत्यंत जरूरी है| मानव और दानव में यही अंतर होता है| दानव अपने मन का गुलाम हो उसके अधीन हो जाता है और मानव अपने मन को अपने अधीन रखता है| अब ये निर्णय तो मानव को ही करना होगा की वो मानव बनना चाहता है या दानव| इमोशनल अत्याचार है घातक साल भर पहले एक फिल्म आई थी -प्यार का पंचनामा। इसके एक दृश्य में नायक अपने ऑफिस के टॉयलेट में छिपकर किसी दूसरी कंपनी के लिए टेलीफोनिक इंटरव्यू दे रहा था। इसी बीच उसकी गर्लफ्रेंड ने बार-बार फोन करके उसे परेशान कर दिया। जब लडके ने उसका कॉल रिसीव किया तो उधर से आवाज आई, फिनायल पीने से कुछ होता तो नहीं? लडके ने घबराकर पूछा, तुम ऐसी बातें क्यों कर रही हो?, वो मैंने फिनायल..। यह सुनते ही लडका इंटरव्यू अधूरा छोड कर उसे बचाने जाता है। लडके को देखकर वह बडी मासूमियत सेकहती है, सो स्वीट ऑफ यू, तुम आ गए। सॉरी जानू..मैं तो सिर्फ यह देखना चाहती थी कि तुम्हें मेरी फिक्र है या नहीं? यह सुनने के बाद लडके की क्या प्रतिक्रिया रही होगी, इसका अंदाजा तो आप लगा ही सकते हैं।
क्यों होता है ऐसा यह तो बात हुई फिल्म की, लेकिन हमारी जिंदगी भी फिल्मों से ज्यादा अलग नहीं होती। हमारे आसपास कई ऐसे लोग मौजूद होते हैं, जो दूसरों पर इमोशनल अत्याचार करने में माहिर होते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में ऐसे लोगों को इमोशनल पैरासाइट या इमोशनल वैंपाइर कहा जाता है। इन्हें रोने के लिए हमेशा किसी कंधे की तलाश रहती है। यह एक तरह का मेंटल मेकैनिज्म है। असुरक्षा की भावना से ग्रस्त ऐसे लोग किसी भी रिश्ते में ऐसा व्यवहार करते हैं। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. भागरानी कालरा कहती हैं, बचपन में माता-पिता का अतिशय संरक्षण या प्यार की कमी। दोनों ही स्थितियां बच्चे के व्यक्तित्व को कमजोर बनाती हैं। बाद में ऐसे लोगों का आत्मविश्वास इतना कमजोर पड जाता है कि ये अपने हर काम में दूसरों की मदद लेने के आदी हो जाते हैं, लेकिन इनमें जिम्मेदारी की भावना जरा भी नहीं होती।
कैसे करें पहचान 1. अपनों को पर्सनल स्पेस न देना 2. मतलब निकल जाने पर पल्ला झाड लेना 3. अपनी बातों से करीबी लोगों के मन में अपराध बोध की भावना को उकसाना 4. आत्मकेंद्रित होना 5. अपनी परेशानियों को दूसरों के सामने बढा-चढाकर पेश करना 6. हमेशा सहानुभूति की इच्छा रखना 7. अपनी किसी भी नाकामी के लिए दूसरों को दोषी ठहराना 8. हमेशा यह शिकायत करना कि कोई मुझे समझने की कोशिश नहीं करता।
अनजाने में होता है ऐसा ऐसी समस्या से ग्रस्त लोग अपने व्यवहार से अनजान होते हैं, उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं होता कि उनके ऐसे रवैये से दूसरों को कितनी परेशानी होती है। किसी भी रिश्ते में ये दूसरों से बहुत कुछ हासिल करना चाहते हैं, पर ख्ाुद कुछ भी देने को तैयार नहीं होते, लेकिन वास्तव में इन्हें अपनों के सहयोग की जरूरत होती है।
संभलकर संभालें इन्हें 1. इन्हें खुद अपना काम करने के लिए प्रेरित करें, ताकि ये आत्मनिर्भर बनें। 2. इनकी बातें ध्यान से सुनें क्योंकि इन्हें अच्छे श्रोता की तलाश रहती है। 3. अगर परिवार में कोई ऐसा सदस्य हो तो सभी को मिलकर उसे इस समस्या से उबारने की कोशिश करनी चाहिए। 4. दांपत्य जीवन में अगर कोई एक व्यक्ति ऐसा हो तो दूसरे पर भी नकारात्मक असर पडता है। समस्या ज्यादा गंभीर रूप धारण कर ले तो पति-पत्नी दोनों को ही काउंसलिंग की जरूरत होती है। 5. अगर ऐसे लोगों के साथ संयत व्यवहार रखा जाए तो इस समस्या को काफी हद तक दूर किया जा सकता है। |
ऊर्जा बढ़ाएं चार स्टेप्स
Tuesday, July 10, 2012
दहेज के लिए हर किसी से रेप का शिकार हुई युवती
व्यवहार य ह युग व्यवहार का है। आप कितने व्यावहारिक हैं, यह उस समय पता चलता है जब आप किसी मुसीबत में हों। मुसीबत यानी किसी सरकारी काम से किसी कार्यालय में जाना पड़ जाए तो आपको नानी-दादी याद आने लगती है। वहीं तो व्यवहार काम आता है। ऎसे स्थानों पर अक्सर टेबल के नीचे से हाथ का व्यवहार रिश्तों में मित्रता के भाव पैदा करता है। दफ्तरों में जिन कर्मचारियों को टेबल के नीचे हाथ के व्यवहार की कला आती है, उनका हाथ कभी खाली नहीं रहता और वे अपने साहबों के सामने टेबल पर शान से बैठ सकते हैं, क्योंकि सामने से साहब के टेबल के नीचे से आए हाथ को बंद करने की क्षमता उनमें होती है। हाथ होते भी नीचे से मिलाने के लिए ही हंै। हमारे लापरवाह किस्म के अधिकारी कभी टेबल के ऊपर से कुछ लेने की गलती करते हैं और फिर पछताते हैं। अब इस "अर्थ" के साथ भी दिक्कत है। यह कब बढ़ जाती है ,पता ही नहीं चलता। आदमी की नौकरी की कमाई जितनी हो उससे कई गुना अर्थप्राप्ति हो जाया करती है। अब वे पूछें कि इतनी दौलत कहां से आई तो बेचारा अफसर क्या जवाब दे? लक्ष्मी किसी से कहकर थोड़े ही आती है। "अर्थ" शब्द में ही कई अर्थ छिपे हुए हैं, जो जितनी कोशिश करे, उतने अर्थ मिल सकते हैं। अर्थ से कई अनर्थ भी हो जाते हैं, पर उससे घबराने की आवश्यकता नहीं। आखिर जो "कुछ" करेगा वही तो गलती करेगा। "अर्थ" के अर्थ को जो गंभीरता से समझेगा उसी से अनर्थ भी होगा। समझदार किस्म के लोग अक्सर यह कहते हैं कि यह जगत नश्वर है। आज तक कोई भी अपने साथ एक कौड़ी नहीं ले जा सका। जब ले जा नहीं सकते तो इकटा करने से क्या फायदा। जीवन का भरोसा भी नहीं। यदि इसका वेलीडिटी पीरियड होता तो उतने टाईम की एफ.डी करवा सकते थे, मगर यह संभव नहीं है। इसलिए मानव को धन संग्रह के लिए कभी लालची नहीं होना चाहिए। यह सैद्धांतिक बात है और हम जानते हैं कि इस तरह की बातें व्यक्ति तभी सोचता है, जब उसे कुछ कर दिखाने का अवसर नहीं मिल पाता। असल बात तो व्यावहारिक होने की है। व्यवहार के बीच कई उत्प्रेरक आ चुके हैं। धन भी उनमें एक है। इसमें व्यवहार का क्या दोष? दहेज के लिए हर किसी से रेप का शिकार हुई युवती भोपाल।। मध्य प्रदेश के सागर जिले में दहेज की मांग पूरी न कर पाने के कारण एक 20 साल की युवती को ससुरालवालों के जुल्म का शिकार होना पड़ा। पिछले तीन साल से महिला को तबेले में जंजीरों से बांध कर रखा गया। इतना ही नहीं, इस दौरान उसके पति, रिश्तेदारों और यहां तक कि पड़ोसियों ने बार-बार उसके साथ बलात्कार किया। युवती पर जुल्म की इंतहा यह थी कि तीन सालों तक उसका रेप किया गया। इस साल मई में 50 हजार रुपये के लिए उसे एक महाजन को बेच दिया गया। सिर्फ इसलिए क्योंकि उसके परिवारवालों के पास दहेज देने के लिए पैसे नहीं थे। युवती एक बार काफी बीमार हो गई, उस वक्त एक पड़ोसी उसे अस्पताल ले गया, लेकिन उसने भी अस्पताल ले जाते समय कथित तौर पर उसका रेप किया। युवती के साथ हुए इस बर्बर व्यवहार का उस समय पता चला, जब उसके एक रिश्तेदार ने सौभाग्य से उसे महाजन के घर पर देख लिया और इस बात की जानकारी उसके परिवारवालों को दी। 1 जुलाई को महिला अपने रिश्तेदारों के साथ राहतगढ़ पुलिस स्टेशन गई और इस अपने ऊपर हुए जुल्म ही यह भयावह कहानी सुनाई। पुलिस अधिकारी एस. पी सागर के अनुसार, महिला की शादी सागर जिले के पराश्री टूंडा गांव के आनंद कुर्मी के साथ पांच साल पहले हुई थी। शादी के कुछ दिन बाद से ही ससुरालवालों ने दहेज के लिए उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। पीड़िता के किसान पिता रामकिशन ने बताया, 'शादी के समय ससुरालवालों ने एक लाख रुपये की मांग की थी, जो उन्हें दे दिए गए थे। लेकिन वह बार-बार चीजों की मांग करने लगे। उन्होंने कलर टीवी, मोटरसाइकल, ट्रैक्टर के साथ-साथ एक लाख रुपये नकद और मांगे। इसके लिए बार-बार उन्होंने मेरी बेटी के साथ मारपीट की।' रामकिशन ने कहा, जब मेरी बेटी गर्भवती हुई तो सास और परिवार के दूसरे लोगों ने मिलकर जबरन उसका गर्भपात करवा दिया। शादी के दो साल बाद उन लोगों ने कहा कि अब उनकी बेटी वहां नहीं रह सकती।' इसके बाद ससुरालवालों ने उसे तबेले में गाय-भैसों के साथ जंजीर से बांधकर रखा। कुछ दिन बाद उसका पति आनंद कुर्मी उसे पास के एक गांव खुरई में राम सिंह नाम के अपने रिश्तेदार के यहां छोड़ आया। राम सिंह और उसके बेटों नरेंद्र और लोकेंद्र ने युवती को घर में बंद करके रखा और करीब 20 दिन तक उसके साथ रेप किया। इसके बाद राम सिंह ने उसे एक दूसरे गांव महुना के महाजन द्वारका प्रसाद को उसे बेच दिया। यहां भी उसके साथ बार-बार रेप किया गया। इस बीच एक दिन महिला काफी बीमार पड़ गई तो महाजन का पड़ोसी खड़ग सिंह उसे अस्पताल ले गया, लेकिन रास्ते में उसने भी उससे रेप किया। बाद में महाजन के घर लौटते समय महिला को रिश्तेदार ने देख लिया और पहचान लिया। तब जाकर महिला के घरवालों को इसकी जानकारी मिली और किसी तरह उसे वहां से छुड़ाया गया। 28 जून को महिला को छुड़ाकर उसके घर वाले अपने पास ले आए और दो दिन बाद इस मामले की रिपोर्ट पुलिस मे लिखवाई। पुलिस ने महिला के पति, ससुरालवालों, रेप के दूसरे आरोपियों सहित महाजन के खिलाफ केस दर्ज किया है। फिलहाल पुलिस ने तीन आरोपियों जिसमें युवती के साथ अस्पताल ले जाते समय रेप करने का आरोपी खड़ग सिंह भी शामिल है, को गिरफ्तार किया है। |
Monday, June 18, 2012
हर चीज का होता है एक जीवनचक्र
दलाल+पीडी+कर्मचारी=खूनी कारोबार
खून की खरीद-फरोख्त के धंधे में निजी ब्लड बैंक के कर्मचारी, दलाल और प्रोफेशनल डोनर (पीडी) की तिकड़ी काम कर रही है। प्रबंधन ब्लड बैंक चलाने के लिए दलालों को प्रश्रय दे रहे हैं और दलाल प्रोफेशनल डोनर का नेटवर्क तैयार कर खून उपलब्ध करा रहे हैं। इस तिकड़ी ने शहर में रक्त का अवैध बाजार खड़ा कर दिया है। सूत्र बताते हैं कि अधिकतर निजी ब्लड बैंकों का काम प्रोफेशनल डोनर के बिना नहीं चलता। दलाल पीडी का नेटवर्क तैयार करते हैं और इन्हें ब्लड बैंक तक लाते हैं। पीडी चंद रूपयों के लालच में खून बेच देते हैं। लालच का रक्तदान रक्तदान के नियमों के मुताबिक कोई रक्तदाता एक बार रक्तदान करने के बाद तीन माह बाद ही अगला रक्तदान कर सकता है। पर पीडी के मामले में सेहत की हिफाजत के इस नियम को भी ब्लड बैंक व दलाल ताक पर रख देते हैं। ब्लड बैंक की जरूरत के कारण कई बार पीडी सप्ताह भर में या 15 दिन में ही दोबारा ब्लड दे देता है। ब्लड बैंक भी एचबी बढ़ाने के लिए पीडी को आयरन की गोलियां खिलाते रहते हैं। सेहत के लिहाज से यह खतरनाक प्रैक्टिस है। एक बार में ब्लड डोनर का अधिकतम 300 एमएल रक्त ही लिया जा सकता है, लेकिन ब्लड बैंक के धंधे का एक काला सच और भी सामने आया है। एक ब्लड बैंक के कर्मचारी ने बताया कि कई बार प्रोफेशनल डोनर की जानकारी के बिना 300 की जगह 500 एमएल तक ब्लड निकाल लिया जाता है। जांच का शॉर्टकट जब कोई डोनर ब्लड बैंक जाता है, तो उसके रक्त के नमूने के पांच टेस्ट होते हैं। इसमें एचआईवी, हेपेटाइटिस-बी, हेपेटाइटिस-सी, वीडीआरएल और मलेरिया की जांच शामिल हैं। सामान्य तौर पर इन जांचों की प्रक्रिया पूरी होने में तीन-चार घंटे लगते हैं। इससे पता चलता है कि रक्तदाता का ब्लड अन्य व्यक्ति को चढ़ाने लायक है या नहीं? पर कुछ निजी ब्लड बैंकों में शॉर्टकट अपनाया जाता है। इससे मरीज को संक्रमित ब्लड चढ़ने का खतरा बढ़ जाता है। आमतौर पर नशेड़ी, ऑटो चालक, पान वाले आदि पीडी के रूप में काम करते हैं। नशेड़ी पीडी या किसी बीमारी से ग्रस्त डोनर का ब्लड चढ़ जाए तो इससे मरीज को संक्रमण का खतरा हो सकता है। मरीज को बैठे-बिठाए कोई अन्य बीमारी हो सकती है। निचले कर्मचारी भी शामिल कुछ जगह अस्पताल और नर्सिüग होम में काम करने वाले गार्ड, निचले स्तर के कर्मचारी भी इस धंधे में शामिल होते हैं। भोपाल के सरकारी ब्लड बैंकों के आसपास भी इस तरह के दलालों की उपस्थिति बताई जाती है। निजी ब्लड बैंक के अलावा ये दलाल सरकारी अस्पतालों में भी घुसपैठ बनाने की कोशिश करते हैं। स्वैच्छिक रक्तदान की कमी के कारण इन तत्वों का धंधा चल रहा है। मोबाइल पर चलता है पूरा नेटवर्क ब्लड की खबर के साथ जोड़ खून के दलालों का नेटवर्क मोबाइल पर चलता है। दलाल सरकारी और प्रायवेट अस्पतालों के पार्किüग कर्मचारी, चपरासी, गार्ड, सफाईकर्मी, आसपास की चाय और पान की दुकान वालो से संबंध स्थापित करते हैं। इसके बाद इन्हें अपना मोबाइल नंबर दे देते हैं। साथ ही यह भी बताते हंै कि अगर किसी को ब्लड की जरूरत हो तो संपर्क कर लेना, इसके बदले सूचना देने वाले को कमीशन देने का प्रलोभन भी दिया जाता है। |
Monday, June 4, 2012
ग्रामीण विकास के रोड़े
वैसे तो भारत में ग्राम पंचायतों की अवधारणा सदियों पुरानी है, लेकिन आजादी के बाद देश में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक अधिकार देकर उसे मजबूत बनाने की कोशिश की गई है। खासकर संविधान के 73वें संशोधन में पंचायतों को वित्तीय अधिकारों के अलावा ग्रामसभा के सशक्तिकरण की दिशा में अनेक योजनाएं बनीं। यही वजह है कि आज देश के लगभग सभी राज्यों में पंचायतों के चुनाव नियमित हो रहे हैं। वहीं केंद्र सरकार इन पंचायतों के विकास लिए अपने खजाने से सालाना अरबों रुपये आवंटित कर रही है ताकि गांवों का सही विकास हो सके, लेकिन इतनी धनराशि आने के बावजूद देश में गांवों की बदहाली दूर नहीं हो पा रही है। असल में ग्राम स्वराज और ग्राम्य विकास का जो सपना महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण ने देखा था वह अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। जिस तरह संसदीय लोकतंत्र में देश के सर्वोच्च प्रतीक संसद और विधानसभाओं का महत्व है उसी तरह ग्रामसभा लोकतंत्र की सबसे निचली इकाई है। इसे सामान्य शब्दों में हम ग्राम संसद भी कहते हैं, लेकिन कमजोर अधिकारों के कारण ग्रामसभा उस तरह मजबूत नहीं हो पाई जैसी परिकल्पना राष्ट्रपिता और लोकनायक जयप्रकाश ने की थी। जिस तरह सांसद और विधायक करोड़ों रुपये की निधि का इस्तेमाल सही तरीके से नहीं करते उसी तरह पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधि भी कमोबेश उसी राह पर चल रहे हैं।
ग्राम स्वराज का असल मकसद तभी पूरा होगा जब गांवों की सत्ता में ग्रामीणों को उचित भागीदारी मिले और विकास से जुड़े तमाम फैसले लेने का अधिकार ग्राम सभा को हो। उदाहरण के तौर पर गांव में सड़कें कहां बनानी हैं, ग्रामसभा की जमीन का किस तरह व्यावसायिक इस्तेमाल हो, इसके अंतिम निर्णय का अधिकार कलेक्टर और बीडीओ को नहीं, बल्कि पंचायत के सरपंच और प्रधान को मिलना चाहिए। संविधान के 73वें संशोधन के बाद दिल्ली से जारी होने वाली धनराशि पंचायतों के विकास के लिए पहुंचती है। अमूमन हर पंचायत में पांच साल के दौरान लाखों रुपये मिलते हैं। अगर इन पैसों का सही जगह इस्तेमाल किया जाए तो देश के समस्त गांवों की तस्वीर बदल सकती है, लेकिन इस भ्रष्ट व्यवस्था में ऐसा नहीं हो पा रहा है, क्योंकि पंचायतों को मिले रुपये कहां खर्च किए जाएं यह फैसला ग्रामीणों की सहमति के बगैर नहीं हो रहा है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि पंचायतों के प्रधान और सरपंच अपने चहते लोगों और अधिकारियों से साठगांठ कर उन योजनाओं को मंजूरी दिलाते हैं जिसमें बंपर कमीशन काटने की गुंजाइश होती है। यही वजह है कि देश के अधिकांश राज्यों में ग्रामसभा को निरंतर कमजोर करने की साजिश की जा रही है। इस मामले में बिहार का उदाहरण लिया जा सकता है। राज्य के तकरीबन सभी गांवों में अक्षय ऊर्जा योजना के नाम पर ग्राम प्रधानों ने सौर बिजली लगाने की योजना बनाई।
बावजूद इसके बिहार के गांवों में अंधेरा अब भी कायम है, क्योंकि लगभग नब्बे फीसदी सोलर लाइटें खराब हो चुकी हैं। इस तरह बड़े पैमाने पर सोलर लाइटें लगाने की एकमात्र वजह थी मोटा कमीशन। अगर विकास योजनाएं ग्रामीणों की सहमति से बनाई जाए तो इस तरह की मनमानी और लूटपाट को रोका जा सकता है। गांवों का विकास ग्रामीणों की मर्जी से होना चाहिए ऐसा कहने के पीछे तर्क यह है कि ग्रामसभा को अधिक से अधिक विकेंद्रीकृत किया जाए। अगर संभव हो तो उसे वार्ड सभा और टोला सभा में तब्दील किया जाए, क्योंकि जिस तरह गांव का प्रधान कुछ हजार लोगों का प्रतिनिधित्व करता है उसी तरह एक पंचायत में चुने जाने वाले दर्जनों पंचायत सदस्य और पंच भी सैकड़ों लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए उनके साथ भेदभाव किया जाना ठीक नहीं। इस तरह के सौतेले बर्ताव से भला हम गांवों का सर्वागीण विकास कैसे कर पाएंगे? दिल्ली स्थित सेंटर फॉर सोशल इंपावरमेंट ऐंड रिसर्च जो ग्रामीण विकास के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करने के अभियानों से जुड़ी है। इस संस्था द्वारा किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि पंचायतों के चुनाव में भी धनबल और बाहुबल का उपयोग लोकसभा और विधानसभा चुनाव की तरह होने लगा है। अध्ययन से पता चलता है कि पिछले साल उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनाव में सैकड़ों प्रत्याशी ऐसे थे जिनके पास करोड़ों की चल-अचल संपत्ति थी।
पंचायतों के चुनाव में मारामारी का आलम यह था कि ग्रामप्रधान और जिला पंचायत की एक सीट के लिए औसतन डेढ़ दर्जन उम्मीदवारों ने नामजदगी के पर्चे भरे। सीएसईआर के अनुसार उत्तर प्रदेश में हुए पंचायतों के चुनाव में ग्रामप्रधान के उम्मीदवारों ने जहां पांच लाख से सात लाख रुपये खर्च किए वहीं जिला पंचायत के लिए उम्मीदवारों ने औसतन दस लाख से सोलह लाख रुपये पानी की तरह बहाए। लोकतंत्र की नर्सरी कहे जाने वाले ग्राम पंचायतों के चुनाव में धन की यह धार सकारात्मक संकेत नहीं है। इन सबके बावजूद ग्राम विकास की उम्मीदें खत्म नहीं होतीं। निश्चित तौर पर बदलाव अचानक नहीं होता, लेकिन इसकी शुरुआत तो हो ही सकती है। उम्मीदों की ऐसी ही एक किरण कृष्ण नगरी मथुरा के मुखराई पंचायत में देखने को मिली। गोवर्धन तहसील से सटे इस पंचायत के प्रत्येक जनशिकायतों का समाधान ग्रामसभा की खुली बैठकों में ही किया जाता है। कुछ अरसे पहले यहां के ग्रामीण भी अन्य गांव वालों की तरह मानते थे कि गांव के विकास में उनकी कोई भागीदारी नहीं है। यही वजह था कि यहां के लोग अपने प्रधान और जिला पंचायत के सदस्यों से उनकी कार्यशैली के बाबत कोई पूछताछ नहीं करते थे। गांव के मुखिया विकास की कौन-कौन सी योजनाएं संचालित करते हैं, ग्राम सभा की बैठकें नियमित क्यों नहीं होती हैं आदि बातों से उन्हें कोई सरोकार नहीं था।
हालांकि अब ऐसा नहीं है, क्योंकि मुखराई लोग ग्रामीण विकास को लेकर पूरी तरह सजग हो चुके हैं। यहां के कुछ लोग सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत नित नई जानकारियां हासिल कर रहे हैं। मुखराई के लोगों का मुख्य पेशा कृषि और पशुपालन है। हालांकि कुछ समय पहले नीलगायों की वजह से यहां के किसान काफी त्रस्त थे। ग्रामीणों ने इस बाबत लिखित सूचना जिला प्रशासन को पूर्व में भी देते रहे, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। नतीजतन यहां के लोगों ने इस समस्या को ग्राम सभा की खुली बैठकों में उठाया और उसके बाद यह मामला राज्य के शीर्ष अधिकारियों के पास पहुंचा। आपसी एकजुटता की वजह से यहां की ग्रामसभा आज पूरी तरह सशक्त बन चुकी है। इसे ग्रामीणों की चेतना का ही असर कहें कि मुखराई के ग्राम प्रधान अपने विकास कार्यो का लेखा-जोखा और एक-एक पैसे का हिसाब ग्राम सभा की बैठकों में देते हैं। बेशक देवभूमि मथुरा की मुखराई पंचायत देश भर के ग्राम सभाओं के लिए एक मिसाल है। अपनी मुखरता से मुखराई के लोग ग्रामीण विकास की दिशा में एक नई मिसाल कायम कर रहे हैं। |
धुंए की धीमी मौत के तथ्य
1- धूम्रपान (smoking) करते समय आप निकोटिन, पायरिडीन, अमोनिया, कार्बन मोनो ऑक्साइड, फ्यूरल, फर्माल्डिहाइड, एसीटोन, आर्सेनिक एसिड जैसे 4800 घातक रसायनों (lethal chemicals) को अपने फेफड़ों और खून मे भरते हैं जिनमें से 69 (International Agency For Research On Cancer के अनुसार 43) कैंसर के लिए सीधे उत्तरदायी हैं। |