Sunday, May 27, 2012

बच्चा जब पूछे कुछ ऐसा...

बच्चे कई बार सेक्स संबंधित ऐसे सवाल पैरंट्स से पूछ बैठते हैं , जिनका जवाब देना उलझन भरा काम होता है। कई बार मां-बाप ऐसे सवालों को टाल जाते हैं तो कई बार बच्चों को डांट देते हैं। दोनों ही चीजें बच्चे के मानसिक विकास के लिए नुकसानदायक हैं। फिर क्या करें ? बच्चे के ऐसे हर सवाल का खास तरीके से जवाब दें। कैसे , एक्सपर्ट्स से मिली जानकारी के आधार

4-9 साल के बच्चों के सवाल

बच्चे कहां से आते हैं ? मैं कहां से आया ? पड़ोस वाली आंटी का पेट बड़ा क्यों है ?( प्रेगनेंट महिला को देखकर)
यह एक ऐसा सवाल है , जो इस उम्र के लगभग हर बच्चे के दिमाग में उठता है। ऐसे सवाल पूछने पर बच्चे को डांटना या उसकी बात को आई-गई करना ठीक नहीं है , क्योंकि इस 
जिज्ञासा को अगर आपने शांत नहीं किया तो वह कहीं और से जानने की कोशिश करेगा और ऐसे में बहुत मुमकिन है कि वह भ्रमित हो जाए। इस उम्र के बच्चे कुदरत और जानवरों के उदाहरणों से किसी बात को अच्छी तरह समझ लेते हैं।

ऐसे में , इस सवाल का जवाब देने के लिए आप उसे कहीं गार्डन या बाहर वॉक पर ले जाएं। फूलों का उदाहरण देकर समझाएं कि कैसे वे पैदा होते हैं और फिर मां के शरीर से अलग होकर खुद अपनी बढ़ोतरी करते हैं। आप उसे सीधे-सीधे यह भी कह सकते हैं कि तुम्हारी मां के शरीर में एक खास अंग है , जिसे गर्भाशय कहते हैं। तुम वहीं से आए हो। इस उम्र में जन्म की पूरी प्रक्रिया के बारे में बताने की जरूरत नहीं है और न ही ऐसी कोई बात बच्चे को कहें कि वह भगवान के यहां से आया या उसे किसी साधु बाबा के यहां से लाए थे। उसे साफ-साफ बताएं कि वह मां के शरीर से पैदा हुआ है। प्रेग्नेंट महिला के बारे में भी बता सकते हैं कि इसी तरह उन आंटी के शरीर से भी एक बेबी पैदा होगा।

अरे , इसमें सबकी फोटो है , मेरी क्यों नहीं है ? ( पैरंट्स की शादी की ऐल्बम देखकर)
इस सवाल को हैंडल करने के कई तरीके हो सकते हैं। 4-6 साल के बच्चों को असली बात समझा पाना मुश्किल है। इस सवाल का जवाब कुछ इस तरह दे सकते हैं कि तुम्हें तब तक मां-पापा इसे दुनिया में लाए ही नहीं थे। भ्रमित करने वाले जवाब देने से बचना चाहिए।

लड़कियों और लड़कों के प्राइवेट पार्ट्स अलग-अलग क्यों होते हैं ? ( कई बार बच्चे एक-दूसरे के कपड़ों में झांकते हैं और उनकी जिज्ञासा बढ़ती है।)
इतनी छोटी उम्र में आप बच्चे को शरीर के अंगों की जानकारी नहीं दे सकते। इसलिए उसे समझाएं कि दुनिया में हर शख्स अलग होता है और अलग ही दिखाई देता है। ईश्वर ने हर शख्स को अलग-अलग बनाया है और इसीलिए उनके शरीर की बनावट भी अलग होती है। मसलन लड़कों के शरीर की बनावट अलग होती है और लड़कियों के शरीर की अलग। इसी तरह कुत्ता , बिल्ली , गाय , भैंस और भी तमाम जीव अपने आप में खास होते हैं। तुम लड़के हो और तुम्हारे अंग लड़कियों से अलग बनाए गए हैं।

घर में रखे या ऐड में देखकर सैनिटरी नैपकिन के बारे में पूछना कि यह क्या है ?
सैनिटरी नैपकिंस के बारे में पूछने पर बच्चों को बता सकते हैं कि ये नैपकिन हैं। जैसे नाक या हाथ पोंछने के लिए तुम सामान्य नैपकिन का इस्तेमाल करते हो , उसी तरह शरीर के प्राइवेट पार्ट्स को पोंछने और उन्हें साफ रखने के लिए मां इनका इस्तेमाल करती है। ये नैपकिन उन नैपकिन से थोड़े अलग होते हैं जिनका इस्तेमाल तुम करते हो , लेकिन इनका काम वही है। इस उम्र में इससे ज्यादा बच्चे को बताने की जरूरत नहीं है।

कॉन्डम क्या होता है ? ( टीवी आदि में ऐड देखकर)
कॉन्डम के बारे में बच्चे की जिज्ञासा बेहद नॉर्मल है। अगर घर में कॉन्डम को छिपाकर भी रखा जाए तो भी इस बात की पूरी संभावना है कि बच्चे टीवी ऐड या सड़कों पर लगे विज्ञापनों के जरिए इस शब्द से परिचित हो चुके हों और इस बारे में आपसे जानने की कोशिश करें। इतने छोटे बच्चों को बता सकते हैं कि जैसे हाथों को किसी बीमारी से बचाने के लिए हम ग्लव्स पहन लेते हैं , उसी तरह कॉन्डम भी एक ग्लव्स की तरह होता है , जो पुरुषों को बीमारियों से बचाता है। अगर बच्चा 10-12 साल के आसपास है तो उसे यह भी कह सकते हैं कि कॉन्डम सेक्स के दौरान पुरुषों को बीमारी से बचाने और बेबी होने से रोकने के काम आता है। सेक्स शब्द का प्रयोग करने से घबराएं नहीं , क्योंकि बच्चे को शिक्षा देने के लिए एक-न-एक दिन इस शब्द का इस्तेमाल करना ही है।

कुत्ता या दूसरे किसी जानवर को मैथुन करते देखकर कि ये क्या कर रहे हैं ?
ऐसी स्थिति आमतौर पर नहीं आती लेकिन कभी-कभार ऐसा हो भी सकता है। ऐसी स्थिति में बच्चों के पूछने पर यह कह सकते हैं कि ये आपस में खेल रहे हैं।

9-14 साल के बच्चों के सवाल

मेरे शरीर में ये अचानक बदलाव क्यों आ रहे हैं ? मसलन दाढ़ी मूंछ आना , प्राइवेट पार्ट्स पर बाल , मुहांसों की शुरुआत आदि।
10 साल की उम्र किसी बच्चे को यौवन के बारे में जानकारी देने का सही समय है। बच्चों को सबसे पहले इस बात का एहसास दिलाया जाए कि उनके शरीर में जो भी बदलाव आ रहे हैं , वे बिल्कुल नॉर्मल हैं और जरूरी भी। उन्हें बताएं कि तुम्हारे शरीर के विभिन्न अंगों पर आने वाले बाल , आवाज में आने वाला बदलाव , मुंहासे निकलना आदि सभी कुछ नॉर्मल है और ऐसा हॉर्मोनल बदलाव की वजह से हो रहा है। ऐसा सभी के साथ होता है। हमारे साथ भी ऐसा हुआ था। लड़कियों और लड़कों दोनों में ही ऐसे बदलाव आते हैं , हालांकि कुछ चीजें लड़कों और लड़कियों दोनों में अलग-अलग हो सकती हैं।

पीरियड्स क्या होते हैं ?
यह जानना जरूरी है कि लड़कियों को पीरियड्स की जानकारी उस समय ही दे दी जानी चाहिए , जब उनके पीरियड्स शुरू नहीं हुए हों और होने वाले हों। यह ऐसा सवाल है , जिसका जवाब मां को बेटी के पूछने से पहले ही दे देना है। ऐसी अवस्था कौन-सी होगी , इसका फैसला मां से बेहतर कोई नहीं कर सकता , फिर भी आमतौर पर 10 साल की उम्र यह सब जानकारी देने के लिए ठीक है। इस बारे में जानकारी देने का काम मां खुद करे या फिर स्कूलों में इंस्ट्रक्श्नल बुक्स और विडियो के जरिए भी यह जानकारी अच्छे ढंग से दी जा सकती है। उन्हें बताया जा सकता है कि यह नॉर्मल है और सभी लड़कियों के साथ ऐसा होता है। बेटियों के साथ मां अपना पर्सनल अनुभव भी शेयर कर सकती हैं और उन्हें सभी बातें विस्तार से बता सकती हैं। मां उन्हें बता सकती हैं कि उनके साथ भी जब ऐसा हुआ था , तो उन्हें भी अजीब-सा लगा था और दर्द भी हुआ लेकिन बाद में यह बिल्कुल नॉर्मल चीज बन गई।

नाइटफॉल क्या होता है ? मास्टरबेशन करना गलत है क्या ?
आमतौर पर ऐसा देखा गया है कि लड़कियों के मुकाबले लड़कों में यौवन थोड़ी देर से आता है। मसलन जहां यह सब जानकारी देने का वक्त लड़कियों में 9 साल है , वहीं लड़कों को इस बारे में 11-12 साल की उम्र में बता देना चाहिए। नाइटफॉल या मास्टरबेशन ऐसी बातें हैं , जिनके बारे में आपका बच्चा अगर आपसे पूछ रहा है तो हो सकता है वह इन चीजों से गुजर चुका हो। नाइटफॉल के बारे में आप उसे समझा सकते हैं - नाइटफॉल होना बिल्कुल नॉर्मल और प्राकृतिक है और इस बात का संकेत है कि तुम यौवन अवस्था में हो। तुम्हारे शरीर में हर वक्त सीमेन बनता रहता है और जब यह ज्यादा इकट्ठा हो जाता है तो सोते वक्त बाहर निकल जाता है। ज्यादातर लड़कों को ऐसा होता है। इसी तरह यही सीमेन जब अपने आप प्राइवेट पार्ट्स को टच करके बाहर निकाला जाता है , तो उसे मास्टरबेशन कहते हैं। सीमेन किसी भी तरह से बाहर निकले , उससे शरीर को कोई नुकसान नहीं होता और न ही ऐसा करने से कोई कमजोरी आती है , लेकिन अति तो हर चीज की बुरी होती है। वैसे भी इस उम्र में मन को तमाम दूसरी क्रिएटिव चीजों में लगाना चाहिए , मसलन संगीत , आर्ट , कोई खेल आदि। ऐसा करने से तुम्हारा विकास भी होगा और मन बार-बार उस ओर नहीं भागेगा।

बच्चा कैसे पैदा किया जाता है ? मां के शरीर से वह बाहर कैसे आता है ?
इस उम्र तक आते-आते बच्चे की समझ इतनी विकसित हो जाती है कि वह बच्चा पैदा होने के बारे में थोड़ा-बहुत समझ ले। उसे बता सकते हैं कि बच्चा मां के पेट में होता है। जब बच्चा पैदा होने वाला होता है तो मां के पेट के अंत में मौजूद सर्विक्स फैलने लगती है। वहां की मांसपेशियां बच्चे को
बाहर धकेलने लगती हैं और बच्चा मां के प्राइवेट पार्ट के जरिए बाहर आ जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में कुछ घंटों का वक्त लग जाता है।

क्या मैं बच्चा पैदा कर सकती/सकता हूं ?
लड़कियों और लड़कों दोनों के मन में यह सवाल उठ सकता है कि क्या वे भी ऐसा कर सकते हैं। उन्हें इस सवाल का जवाब इस तरह दे सकते हैं - नहीं , तुम ऐसा नहीं कर सकते। बच्चा पैदा करने के लिए हमें शारीरिक , मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत और विकसित होना बहुत जरूरी है। अभी तुम्हारा शरीर उतना विकसित नहीं है। तुम्हारे शरीर के अंदर अभी वे सभी प्रक्रियाएं भी शुरू नहीं हुई हैं , जो बच्चा पैदा करने के लिए जरूरी हैं , लेकिन जब तुम बड़े हो जाओगे , तो तुम्हारा शरीर इस काम के लिए तैयार हो जाएगा।

बाल यौन शोषण(चाइल्ड सेक्सुअल अब्यूज)
बच्चों का यौन शोषण करने वाले लोग दिखने में सामान्य ही होते हैं , लेकिन देखा गया है कि ऐसे लोग बच्चों के साथ जरूरत से ज्यादा वक्त बिताते हैं और उनके साथ ज्यादा घुलने-मिलने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोगों को पकड़ना या उनकी पहचान कर पाना आसान नहीं है। कई बार ऐसे लोग आपके बेहद नजदीकी भी हो सकते हैं , जिन पर आप शक भी नहीं कर पाएंगे। ऐसे में बेहतर यही है कि बच्चे को बाल यौन शोषण के बारे में परिचित कराएं और उसे साफ-साफ बताएं कि अगर कोई भी उसके साथ ऐसी हरकत करता है तो वह फौरन आपको बताए।

ऐसे समझाएं बच्चे को
यौन शोषण से बच्चे खुद को बचा सकें , इसके लिए यह जरूरी नहीं है कि उन्हें पूरी सेक्स एजुकेशन ही दी जाए। देखिए , एक जागरूक और समझदार मां अपनी पांच साल की बेटी को कैसे बता रही है इस सबके बारे में। आप भी यह तरीका अपना सकते हैं:
- बेटा , टच तीन तरह के होते हैं। गुड टच , बैड टच और सीक्रेट टच।
- गुड टच वह टच होता है , जिससे तुम्हें खुशी मिलती है। जैसे कोई तुम्हें गले से लगा ले , तुमसे हाथ मिला ले , तुम्हारी पीठ थपथपा दे या हाई फाइव करे।
- दूसरी तरफ बैड टच तुम्हें परेशान करता है। इससे तुम्हें बुरा लगता है। मसलन कोई तुम्हें नोच ले , चिकोटी काट ले या किक मार दे।
- अब बात सीक्रेट टच की। सीक्रेट टच के दो हिस्से होते हैं। पहला हिस्सा यह है कि यह टच तुम्हारे प्राइवेट पार्ट्स पर किया जाता है यानी शरीर के उन हिस्सों पर जो स्विम सूट पहनने के दौरान कवर हो जाते हैं। मोटे तौर पर ये तीन अंग हैं: सीना , बॉटम और आगे का हिस्सा। याद रखो , ये प्राइवेट हिस्से हैं और इन्हें देखने और टच करने का अधिकार किसी को नहीं है। सीक्रेट टच का दूसरा हिस्सा यह होता है कि ऐसा टच करने वाला व्यक्ति तुम्हें यह कहेगा कि इस बात को किसी को मत बताना। हो सकता है , वह तुम्हें डराए और धमकाए कि यह बात किसी को नहीं बतानी है।

यहां यह जानना जरूरी है कि नहलाते वक्त मां ऐसा कर सकती है। वह सीक्रेट टच नहीं है क्योंकि वह कभी नहीं कहती कि यह बात किसी को बताना मत। इसी तरह डॉक्टर अगर तुम्हें इन जगहों पर टच करते हैं , तो वह भी सीक्रेट टच नहीं है क्योंकि डॉक्टर भी यह कभी नहीं कहते कि यह किसी से कहना मत। हालांकि डॉक्टर तुम्हारे इन अंगों को चेक तभी कर सकते हैं , जब तुम्हारे मां या पापा में से कोई साथ हो। लेकिन अगर कोई शख्स तुम्हें ऐसी जगहों पर टच करे और तुम्हें धमकाए या कहे कि यह बात किसी को मत बताना तो यह बात तुम्हें फौरन अपने मम्मी या पापा को जरूर बतानी है।

एक्सपर्ट पैनल
डॉ. सय्यारा अंसारी चाइल्ड साइकायट्रिस्ट , कोलंबिया एशिया अस्पताल
डॉ. समीर पारिख , साइकायट्रिस्ट , मैक्स हेल्थ केयर

एक्सपर्ट्स से पूछें
हर बच्चा अपने आप में यूनीक है और हर बच्चे के मन में उठने वाले सवालों का स्तर भी। हमने कई आम सवालों को छूने की कोशिश की है , फिर भी अगर आपका बच्चा कोई ऐसा सवाल पूछता है जिसका यहां जिक्र होने से रह गया है , तो आप हमें अपना सवाल हिंदी या अंग्रेजी में लिख सकते हैं। मेल करें: sundaynbt@gmail.com पर। हमारे एक्सपर्ट आपको बताएंगे कि उस सवाल का सही जवाब बच्चे को कैसे दिया जाए। आपके सवाल हमें मंगलवार तक मिल जाने चाहिए।

कुछ उलझन भरी स्थितियां
- अगर बच्चा पैरंट्स को लवमेकिंग करते देख ले।
अगर बच्चा पैरंट्स को प्राइवेट पलों में देख ले , तो उसके मन पर इसका गहरा असर हो सकता है। ऐसे में उसे हर बात समझाना जरूरी है। अगर पैरंट्स ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि बच्चे के सामने आ सकें और बच्चा अचानक कमरे में आ जाता है , तो हड़बड़ाएं नहीं। उसे आराम से कह दें , बेटा अभी मां-पापा को प्राइवेट टाइम चाहिए। अभी अपने कमरे में चले जाओ , तो कुछ ही मिनट में हम आपसे बात करेंगे। बाद में बच्चे को समझाएं कि मां-पापा एक-दूसरे को प्यार कर रहे थे। ऐसा करते वक्त हम दरवाजा बंद कर लेते हैं क्योंकि यह सब प्राइवेट होता है , लेकिन आज हम दरवाजा बंद करना भूल गए। अब बच्चे के रिएक्शन देखें। अगर बच्चा अभी भी परेशान है तो उसे समझाएं कि न तो उसने ऐसे अचानक आकर कोई गलती की है और न ही मां-पापा कोई गलत काम कर रहे थे। यह सब नॉर्मल है। कोशिश करें कि बच्चे के मन में कहीं भी यह भाव न पनपने पाए कि पापा मां को परेशान कर रहे थे।

- अगर टीवी देखते हुए कोई लवमेकिंग या किसिंग सीन आ जाता है।
टीवी देखते वक्त अगर अचानक किसिंग या लवमेकिंग सीन आ जाए तो हड़बड़ाएं नहीं और न ही टीवी बंद करने या चैनल बदलने की कोशिश करें। सहज भाव से उसे वैसे ही चलने दें और जब सीन खत्म हो जाए तो बच्चे को देखें। अगर वह असहज है या खुद ही उसके बारे में पूछ बैठता है तो इसे शिक्षा देने का एक मौका समझें। बच्चे को उसकी उम्र के मुताबिक , इस बारे में समझा सकते हैं। मसलन ये लोग आपस में प्यार कर रहे थे या यह दो बड़े लोगों के बीच प्यार करने का एक तरीका होता है। अगर आप असहज हो गए या चैनल बदला तो बच्चे पर गलत असर हो सकता है , लेकिन उसे सही सूचना देने से उस पर गलत असर कभी नहीं होगा।

- अगर बच्चा बड़ों को कपड़े बदलते या नहाते चुपचाप देखने की कोशिश करता है।
जिज्ञासा के चलते बच्चे छुपकर बड़ों को कपड़े बदलते या नहाते देखने की कोशिश कर सकते हैं। ऐसा होना नॉर्मल है। ऐसे में , उन्हें समझाएं कि यह गलत बात हैं। किसी को भी छिपकर नहीं देखना चाहिए। उनसे कहें- तुम्हें भी यह अच्छा नहीं लगेगा कि तुम्हें कोई छिपकर देखे। इसलिए तुम्हें भी ऐसा काम नहीं करना चाहिए। भूलकर भी बच्चे को डांटें नहीं। उसे यह एहसास न होने दें कि उसने कोई गलत काम कर दिया है। अगर बच्चे को थोड़ी समझ है तो इस मौके पर उसे पुरुष और स्त्री के अंगों के बारे में भी थोड़ी जानकारी दी जा सकती है।

समझाते वक्त पैरंट्स रखें ध्यान
- बच्चे को सेक्स से संबंधित ज्ञान देने की कोई उम्र नहीं होती। यह हर बच्चे के स्तर पर निर्भर करता है। वैसे बच्चे की सेक्स एजुकेशन तभी शुरू हो जाती है , जब वह पालने में होता है।
- बच्चे जब भी सेक्स से संबंधित कोई सवाल पूछें तो उसे एक ऐसे मौके के तौर पर देखना चाहिए , जब आप बच्चे की सेक्स एजुकेशन की शुरुआत कर सकते हैं।
- बच्चे जब भी इस तरह के सवाल पूछें , तो कोशिश यह होनी चाहिए कि उनके इन सवालों के जवाब एकांत में दिए जाएं। अगर बच्चा किसी के सामने सवाल पूछ बैठता है तो उसे प्यार से कह दें कि इसके बारे में हम तुम्हें बाद में बताएंगे और फिर इस वादे को पूरा करें।
- किसी भी सवाल का जवाब इस अंदाज में न दिया जाए , जो बालक की भावनाओं को भड़काए या उत्तेजित करे।
- बच्चे के साथ सख्त और गैर-दोस्ताना रवैया न रखें। आप जो भी बता रहे हैं , वह उसके विकासकाल के मुताबिक होना चाहिए। वैसे ज्यादा ज्ञान भी दे देंगे तो उसका कोई नुकसान नहीं होगा। ज्ञान कभी हानिकारक हो ही नहीं सकता।
- बच्चा अगर शांत स्वाभाव का है तो उसे इस विषय की ज्यादा बातें बता सकते हें , जबकि चंचल बच्चों को थोड़ा कम ज्ञान देना ही ठीक रहता है।
- अगर कभी बच्चे के किसी सवाल का जवाब मालूम नहीं है या उसने कोई ऐसा प्रश्न पूछ डाला जिसका जवाब देने में आप झिझकते हैं या देना नहीं चाहते तो आप उससे कह सकते हैं - तुम्हारा सवाल बहुत अच्छा है , लेकिन हमें भी इसका जवाब पता नहीं है। हम इसका जवाब मालूम करने की कोशिश करेंगे और फिर तुम्हें बताएंगे।
- ध्यान रखें , मां-बाप का आपस में और बच्चे के प्रति जैसा बर्ताव होगा , बच्चा सेक्स संबंधी ज्ञान को उसी के अनुरूप लेगा। जिन मां-बाप के बीच प्रेम होता है और जो बच्चे को भी इस बात का एहसास कराते हैं कि वे उसे बहुत प्यार करते हैं , उनके बच्चों के सेक्स संबंधी ज्ञान में ज्यादा और बेहतरीन तरीके से बढ़ोतरी होती है।



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रेव का रोग

एक रेव पार्टी में सच्चाई यह है कि महानगरों के धनाढ्य तबकों तक सिमटे मौज-मस्ती के ऐसे आयोजन अब छोटे शहरों में भी अपने पांव पसारने लगे हैं। नशे में डूबे चरम मौज-मस्ती के लिए जाने जाने वाले इन आयोजनों में जैसा भोंडा प्रदर्शन होता है, वह किसी भी समाज और संस्कृति को अंधी खाई की ओर ले जाने वाला है। मादक पदार्थों के सेवन के बाद झूमते युवाओं की दुनिया रेव पार्टी के उस हॉल के भीतर सिमटी होती है, जहां उन्हें अपनी यौन ग्रंथियों के सार्वजनिक प्रदर्शन की भी खुली छूट होती है। दरअसल, हाल के वर्षों में समाज के एक तबके के बीच सार्वजनिक जीवन में पैसे के प्रदर्शन की जो प्रवृत्ति पैदा हुई है, उसमें मनोरंजन का रास्ता इसी तरह के अतिवादी ठिकानों की ओर जाता है। ऐसी पार्टियों का आयोजन अखबारों, पत्रिकाओं, टीवी चैनलों या इंटरनेट पर 'फ्रेंडशिप क्लब' और 'दोस्त बनाएं' जैसे विज्ञापनों की आड़ में और गोपनीय मोबाइल संदेशों के जरिए किया जाता है। इसके आयोजक जरूरत से ज्यादा पैसे होने से उपजी नकारात्मक ग्रंथियों को भुनाने के मकसद से अपना धंधा चलाते हैं। उनके जाल में ऐसे युवा आसानी से फंस जाते हैं, जिनके पास पैसे की कमी नहीं होती और जिनके लिए नशे में तमाम वर्जनाओं को ताक पर रख देना ही मनोरंजन है। विडंबना है कि ऐसे विज्ञापनों के खिलाफ न कोई कार्रवाई हो पाती है न इन्हें छापने वाले समाचार माध्यम अपनी जिम्मेदारी समझ पा रहे हैं। अब तक जितनी जगहों पर पुलिस  
ने छापे मारे, वहां अश्लील हरकतों में लिप्त सौ से ज्यादा युवा पकड़े गए और भारी मात्रा में चरस, अफीम आदि नशीले पदार्थ बरामद हुए। जाहिर है, ऐसी पार्टियां मौज-मस्ती के नाम पर नशाखोरी, देह-व्यापार और दूसरी गैरकानूनी हरकतों के लिए जगह मुहैया कराती हैं।
यह सही है कि पश्चिमी देशों से आयातित इस शौक का दायरा अभी समाज के एक छोटे तबके तक सीमित है, जिसके पास खूब पैसा है। वह अपना हर पल ऐसे माहौल में बिताना चाहता है जहां आर्थिक या सामाजिक, किसी भी तरह के प्रभुत्व से उपजी कुंठाओं के प्रदर्शन की खुली छूट हो। उसे व्यापक समाज या मानवीय संवेदनाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। मगर चिंता की बात है कि अगर इसका दायरा फैलता है तो बाकी समाज भी इसके असर से अछूता नहीं रहेगा। समाज का एक तबका अपने मनोरंजन के लिए कोई खास तरीका अपनाता है तो इस पर कोई पाबंदी नहीं होनी चाहिए। लेकिन अगर यह कोई सकारात्मक असर छोड़ने और व्यापक स्वीकार्यता के बजाय न सिर्फ नकारात्मक पहलुओं की बुनियाद पर खड़ा होता, बल्कि उसको बढ़ावा देता है तो निश्चित तौर पर यह किसी भी संवेदनशील समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। रेव पार्टियां इस कसौटी पर कहां हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इनमें चोरी-छिपे शामिल होने वाले तमाम पक्ष खुद एक अपराधबोध से भरे रहते हैं। यह बेवजह नहीं है कि जब पुलिस छापों में लोग पकड़े जाते हैं तो बचाव के लिए उनके पास कोई दलील नहीं होती। ऐसे आयोजनों के ठिकाने प्रशासन की नजर से ओझल नहीं हैं। इससे विचित्र क्या होगा कि बड़े होटलों तक में इनका इंतजाम होने लगा है। अगर संजीदगी दिखाई जाए तो रेव पार्टियों के आयोजन पर लगाम कसना मुश्किल नहीं है।
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शिक्षा की मुश्किलें


कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि शिक्षा का अधिकार कानून निजी स्कूलों पर भी लागू होता है। मगर सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को मानने के लिए उन्हीं स्कूलों को बाध्य किया जा सकता है जो सरकार के शिक्षा विभाग में पंजीकृत हैं। देश में बिना पंजीकरण के चलने वाले स्कूलों की तादाद इतनी बड़ी है कि कई राज्य सरकारों के लिए यह चिंता का विषय बनता जा रहा है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि केवल पंजाब में नौ हजार आठ सौ में से तीन हजार आठ सौ स्कूल बिना पंजीकरण के चल रहे हैं। समझा जा सकता है कि इस तरह कितने सारे निजी स्कूल पंजीकरण की तकनीकी अनिवार्यता पूरी न करने का फायदा उठा रहे होंगे। इसलिए पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा के सभी स्कूलों को अपने राज्य के शिक्षा विभाग में अनिवार्य रूप से पंजीकरण कराने का निर्देश दिया है, ताकि वहां भी इस कानून पर अमल सुनिश्चित कराया जा सके। इसके तहत सभी स्कूलों के लिए राज्य के शिक्षा विभाग की ओर से तय की गई कसौटियों और शर्तों को पूरा करने के बाद पंजीकरण अनिवार्य बनाया गया है। कमी पाए जाने पर विभाग संबंधित स्कूल का पंजीकरण रद्द कर सकता है।
दरअसल, जब से शिक्षा व्यवसाय का एक बेहतर माध्यम बन गई है, जहां-तहां स्कूल खुलने लगे हैं। इसमें बहुत सारे लोग स्कूल खोलने के लिए तय मानकों का पालन करना जरूरी नहीं समझते। यही वजह है कि बहुत सारे स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद, प्रयोगशाला, पुस्तकालय आदि के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। बहुत सारे स्कूलों के भवन तक आधे-अधूरे बने हैं। उनमें शिक्षकों की भर्ती वगैरह के मामले में भी तय   मानकों का ध्यान नहीं रखा जाता। ऐसे स्कूलों का इरादा पहले फीस से कमाई करने और फिर उससे जरूरी संसाधन जुटाने का होता है। जब यह स्थिति बड़े शहरों में बड़े पैमाने पर दिखाई देती है तो छोटे शहरों और कस्बों में क्या हालत होगी अंदाजा लगाया जा सकता है। जाहिर है, ऐसे स्कूल पंजीकरण से बचने की कोशिश करते हैं। इसमें स्कूल खोलने संबंधी लचीले नियम-कायदों से भी उन्हें बल मिलता है। ऐसे में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के ताजा आदेश का वे कितना पालन कर पाएंगे, कहना मुश्किल है। जब से छह से चौदह साल के बच्चों के लिए अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुआ है, सबसे बड़ी उलझन इस बात को लेकर रही है कि निजी स्कूलों में इन नियम-कायदों को सहजता से कैसे अमल में लाया जाए। महज मुनाफे को अपना मकसद मानने वाले निजी स्कूल इस कानून के तहत पचीस फीसद सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित करने के प्रावधान से बचने की कोशिश करते रहे हैं। इसके लिए उन्होंने अदालत का भी सहारा लिया था। इस तरह केवल निजी स्कूलों में इन कानूनों पर अमल से समस्या का समाधान निकालना आसान नहीं है। हकीकत है कि देश भर में शिक्षकों के लाखों पद खाली पड़े हैं। जहां भर्तियां हो भी रही हैं, वहां प्रशिक्षित शिक्षकों के बजाय बहुत कम वेतन पर शिक्षा-मित्र या अप्रशिक्षित लोगों से काम चलाया जा रहा है। बहुत सारे स्कूल बिना भवन के चल रहे हैं। नए स्कूल खोलना कठिन बना हुआ है। स्कूलों में अगर बुनियादी ढांचे से लेकर शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात और शैक्षिक गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया गया, तो शिक्षा का अधिकार कानून महज औपचारिकता बन कर रह जाएगा।

Saturday, May 26, 2012

प्रशंसा जरूर कीजिए, मगर...

एक कक्षा में रजत नाम के चार विद्यार्थी थे। उनमें से तीन रजत तो पढ़ने-लिखने में बहुत अच्छे थे, मगर एक रजत कमजोर था। पढ़ने-लिखने की बजाय वह शरारतों में ही अपना सारा समय निकाल देता। एक दिन उसके अध्यापक कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्हें शरारती रजत के पिता मिले। रजत के पिता ने अध्यापक से अपने बेटे की पढ़ाई के बारे में पूछा। अध्यापक उन्हें ठीक से पहचान नहीं पाए कि वो कौन से रजत के पिता हैं। उन्होंने उसे दूसरे रजत का पिता समझा जो कक्षा में सबसे अच्छा था और कहा कि रजत तो कक्षा में सबसे अच्छा लड़का है। उसकी पढ़ाई ठीक चल रही है। घर आकर शरारती रजत के पिता ने जब यह बात रजत को बताई तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ।

अगले दिन रजत जब स्कूल गया तो उसने अपने अध्यापक से
पूछा- सर, क्या कल आपने मेरे पिताजी से कहा था कि मैं एक अच्छा लड़का हूं और मेरी पढ़ाई ठीक चल रही है? अध्यापक को अपनी भूल का पता चला, लेकिन उन्होंने कहा- हां, तुम एक अच्छे लड़के हो और तुम्हारी पढ़ाई भी ठीक चल रही है।

वह एक अच्छा लड़का है और उसकी पढ़ाई भी ठीक चल रही है, यह सुनकर पहले तो खुद रजत को विश्वास नहीं हुआ, लेकिन फिर वह अनोखी खुशी से भर गया। बार-बार उसके भीतर से यह आवाज आने लगी, वह एक अच्छा लड़का है और उसकी पढ़ाई भी ठीक चल रही है। रजत का आत्मविश्वास लौटने लगा। उसने उसी क्षण से शरारत छोड़ दी और वह उस बात को वास्तविकता में बदलने के लिए जोर-शोर से पढ़ाई में जुट गया। उस साल वार्षिक परीक्षा में वह बहुत अच्छे अंकों से पास हुआ। रजत सचमुच एक अच्छा विद्यार्थी बन चुका था। यह हुआ अध्यापक द्वारा उसकी प्रशंसा किए जाने पर।

अच्छे विद्यार्थी अपने माता-पिता और अध्यापकों के विश्वास को कभी नहीं तोड़ते। इसलिए अपने बच्चों और विद्यार्थियों की प्रशंसा करें। यह प्रशंसा उन्हें आगे बढ़ने में मदद करती है। प्रशंसा करना और प्रशंसा पाना, दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैं। आलोचना करना सरल है, पर प्रशंसा करना थोड़ा कठिन। प्रशंसा वही कर सकता है, जो सकारात्मक दृष्टिकोण रखता हो।

प्रशंसा उस धूप के समान है जो सीलन, नमी और फफूंदी को दूर कर देती है। प्रशंसा संगीत है, एक कला है। जिसने इस कला को सीख लिया, उसने अपना और दूसरों का दृष्टिकोण संवार दिया। यह सकारात्मक दृष्टिकोण ही तो है जो हमें हर प्रकार की सफलता दिलवाने में सहायक होता है। इसलिए सफलता पाने के लिए प्रशंसा करना सीखें।

लेकिन ध्यान रखें, प्रशंसा का मतलब चापलूसी हर्गिज नहीं है। एक चापलूस व्यक्ति न स्वयं आगे बढ़ता है और न वह व्यक्ति जिसे चापलूसी पसंद होती है। कई बार किसी से काम निकलवाने या काम ठीक से करवाने के लिए हम कुछ प्रलोभन अथवा पुरस्कार भी देते हैं। लेकिन इसका प्रभाव कभी स्थायी नहीं होता। लेकिन ईमानदार प्रशंसा का प्रभाव स्थायी होता है। प्रशंसा सबसे बड़ा प्रलोभन अथवा पुरस्कार है। सात्विक भाव से की गई गलत प्रशंसा का भी अच्छा ही प्रभाव पड़ता है। लेकिन जहां तक हो सके, प्रशंसा करने में ईमानदार रहें।

जो कर सकते हैं लेकिन कुछ नहीं करते, उन्हें कर्मशील बनाने के लिए तो प्रशंसा और भी जरूरी है। ईमानदारी से की गई प्रशंसा स्वीकार्य बनाती है। प्रशंसित व्यक्ति में कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा हो जाता है, क्योंकि गलत काम के लिए तो कोई किसी की प्रशंसा नहीं करता। प्रशंसा व्यक्ति की हो अथवा उसके काम की, प्रशंसा वास्तव में काम की ही होती है। इसलिए प्रशंसित व्यक्ति जो कुछ भी करेगा अच्छा ही करेगा।

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विकास

विकास जहां होता है, वहां लोग भाग्यशाली होते हैं। आपकी आप जानें मगर हम तो इस मायने में जरूरत से ज्यादा भाग्यशाली हैं। हमें विकास की राह नहीं देखना पड़ती है। विकास हमारे आगे-आगे चलता है। एक काम हुआ नहीं कि दूसरा शुरू हो जाता है। विकास के लिए विकास होना आवश्यक है। हमारे यहां तो विकास निरंतर दौड़ रहा है। हमारे यहां विकास के प्रति जनप्रतिनिधि इतने सजग हैं कि हर काम फुर्ती से करवाते हैं। करवाते ही नहीं उसकी निरंतर निगरानी भी करते हैं। विकास की व्यवस्था को समझने वाले जिस तरह हमारे यहां हैं वैसे सभी दूर होना चाहिए।

अब देखिए कितनी ऊंची सोच है हमारे जनप्रतिनिधियों की। पहले सड़क बनवाते हैं और उसके बाद पाइप लाइन डालने का कार्य करवाते हैं। जब पाइप लाइन डलती है तो सड़क पूरी खुद जाती है, लिहाजा सड़क फिर से बनाई जाती है। सड़क बन गई तो अब केबल डालने का कार्य होता है इसमें सड़क फिर खुद जाती है। सड़क तीसरी बार बनाई जाती है। सड़क बनी और फिर योजना बन जाती है सीवर व्यवस्था को मजबूत करने की। तो फिर से सड़क खुदती है और बनती हैं। अगर आपको हमारी बात पर विश्वास हो तो इसे सच मानें कि हमारे यहां की सड़कें एक साल में चार बार बन चुकी है और अभी भी बन रही है। ऎसा आपके यहां भी हो रहा होगा यानी आप भी कम भाग्यशाली नहीं हैं। दरअसल विकास की अवधारणा भी यही होती है। निरंतर विकास कार्य होते रहें यह आवश्यक है।

विकास के कार्य निरंतर होने से ही जनप्रतिनिधियों का विकास हो पाता है। कोई अपने क्षेत्र में सीमेन्ट की सड़कें बनवा दें तो अगला प्रतिनिधि उसे उखड़वा सकता है क्योंकि वह सीमेंटेड सड़को की बजाए डामर की सड़कों का पक्षधर होता है। डामर की सड़कें होंगी तो वर्षभर मरम्मत कार्य चलता रहेगा। विकास के पाठ का एक बिन्दु यह भी है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है कि मूल निर्माण कार्य से अधिक "स्कोप" मरम्मत कार्य में होता है। तालाब बनाना हो तो फटाफट बन जाए मगर तालाब की एक पाल की मरम्मत करना हो तो महीनों लग जाएं। यानी मरम्मत का कार्य पूर्ण गंभीरता से करना होता है। मरम्मत के कार्य में खरपतवार का हस्तक्षेप भी नहीं हो पाता है। खरपतवार वही जो किसी भी फसल के साथ जबरन उगकर मूल फसल की वृद्धि में रूकावट पैदा करती है। विकास के कार्य में भी ऎसी खरपतवार पैदा हो ही जाती है।

कोई कार्य स्वीकृत हुआ नहीं कि अपना कमीशन पाने की जुगाड़ में ये खरपतवारनुमा व्यक्ति लार टपकाते पहुंच ही जाते हैं। हर किसी को कमीशन देते-देते ठेकेदार के मन में वैराग्य भाव उत्पन्न हो जाते हैं। वह सोचने लगता है कि मेहनत मैं करूं और खिलाऊं इन्हें? यानी वह इस खरपतवार से परेशान हो जाता है।

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प्रशंसा जरूर कीजिए, मगर...

एक कक्षा में रजत नाम के चार विद्यार्थी थे। उनमें से तीन रजत तो पढ़ने-लिखने में बहुत अच्छे थे, मगर एक रजत कमजोर था। पढ़ने-लिखने की बजाय वह शरारतों में ही अपना सारा समय निकाल देता। एक दिन उसके अध्यापक कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्हें शरारती रजत के पिता मिले। रजत के पिता ने अध्यापक से अपने बेटे की पढ़ाई के बारे में पूछा। अध्यापक उन्हें ठीक से पहचान नहीं पाए कि वो कौन से रजत के पिता हैं। उन्होंने उसे दूसरे रजत का पिता समझा जो कक्षा में सबसे अच्छा था और कहा कि रजत तो कक्षा में सबसे अच्छा लड़का है। उसकी पढ़ाई ठीक चल रही है। घर आकर शरारती रजत के पिता ने जब यह बात रजत को बताई तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ।

अगले दिन रजत जब स्कूल गया तो उसने अपने अध्यापक से
पूछा- सर, क्या कल आपने मेरे पिताजी से कहा था कि मैं एक अच्छा लड़का हूं और मेरी पढ़ाई ठीक चल रही है? अध्यापक को अपनी भूल का पता चला, लेकिन उन्होंने कहा- हां, तुम एक अच्छे लड़के हो और तुम्हारी पढ़ाई भी ठीक चल रही है।

वह एक अच्छा लड़का है और उसकी पढ़ाई भी ठीक चल रही है, यह सुनकर पहले तो खुद रजत को विश्वास नहीं हुआ, लेकिन फिर वह अनोखी खुशी से भर गया। बार-बार उसके भीतर से यह आवाज आने लगी, वह एक अच्छा लड़का है और उसकी पढ़ाई भी ठीक चल रही है। रजत का आत्मविश्वास लौटने लगा। उसने उसी क्षण से शरारत छोड़ दी और वह उस बात को वास्तविकता में बदलने के लिए जोर-शोर से पढ़ाई में जुट गया। उस साल वार्षिक परीक्षा में वह बहुत अच्छे अंकों से पास हुआ। रजत सचमुच एक अच्छा विद्यार्थी बन चुका था। यह हुआ अध्यापक द्वारा उसकी प्रशंसा किए जाने पर।

अच्छे विद्यार्थी अपने माता-पिता और अध्यापकों के विश्वास को कभी नहीं तोड़ते। इसलिए अपने बच्चों और विद्यार्थियों की प्रशंसा करें। यह प्रशंसा उन्हें आगे बढ़ने में मदद करती है। प्रशंसा करना और प्रशंसा पाना, दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैं। आलोचना करना सरल है, पर प्रशंसा करना थोड़ा कठिन। प्रशंसा वही कर सकता है, जो सकारात्मक दृष्टिकोण रखता हो।

प्रशंसा उस धूप के समान है जो सीलन, नमी और फफूंदी को दूर कर देती है। प्रशंसा संगीत है, एक कला है। जिसने इस कला को सीख लिया, उसने अपना और दूसरों का दृष्टिकोण संवार दिया। यह सकारात्मक दृष्टिकोण ही तो है जो हमें हर प्रकार की सफलता दिलवाने में सहायक होता है। इसलिए सफलता पाने के लिए प्रशंसा करना सीखें।

लेकिन ध्यान रखें, प्रशंसा का मतलब चापलूसी हर्गिज नहीं है। एक चापलूस व्यक्ति न स्वयं आगे बढ़ता है और न वह व्यक्ति जिसे चापलूसी पसंद होती है। कई बार किसी से काम निकलवाने या काम ठीक से करवाने के लिए हम कुछ प्रलोभन अथवा पुरस्कार भी देते हैं। लेकिन इसका प्रभाव कभी स्थायी नहीं होता। लेकिन ईमानदार प्रशंसा का प्रभाव स्थायी होता है। प्रशंसा सबसे बड़ा प्रलोभन अथवा पुरस्कार है। सात्विक भाव से की गई गलत प्रशंसा का भी अच्छा ही प्रभाव पड़ता है। लेकिन जहां तक हो सके, प्रशंसा करने में ईमानदार रहें।

जो कर सकते हैं लेकिन कुछ नहीं करते, उन्हें कर्मशील बनाने के लिए तो प्रशंसा और भी जरूरी है। ईमानदारी से की गई प्रशंसा स्वीकार्य बनाती है। प्रशंसित व्यक्ति में कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा हो जाता है, क्योंकि गलत काम के लिए तो कोई किसी की प्रशंसा नहीं करता। प्रशंसा व्यक्ति की हो अथवा उसके काम की, प्रशंसा वास्तव में काम की ही होती है। इसलिए प्रशंसित व्यक्ति जो कुछ भी करेगा अच्छा ही करेगा।

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विकास

विकास जहां होता है, वहां लोग भाग्यशाली होते हैं। आपकी आप जानें मगर हम तो इस मायने में जरूरत से ज्यादा भाग्यशाली हैं। हमें विकास की राह नहीं देखना पड़ती है। विकास हमारे आगे-आगे चलता है। एक काम हुआ नहीं कि दूसरा शुरू हो जाता है। विकास के लिए विकास होना आवश्यक है। हमारे यहां तो विकास निरंतर दौड़ रहा है। हमारे यहां विकास के प्रति जनप्रतिनिधि इतने सजग हैं कि हर काम फुर्ती से करवाते हैं। करवाते ही नहीं उसकी निरंतर निगरानी भी करते हैं। विकास की व्यवस्था को समझने वाले जिस तरह हमारे यहां हैं वैसे सभी दूर होना चाहिए।

अब देखिए कितनी ऊंची सोच है हमारे जनप्रतिनिधियों की। पहले सड़क बनवाते हैं और उसके बाद पाइप लाइन डालने का कार्य करवाते हैं। जब पाइप लाइन डलती है तो सड़क पूरी खुद जाती है, लिहाजा सड़क फिर से बनाई जाती है। सड़क बन गई तो अब केबल डालने का कार्य होता है इसमें सड़क फिर खुद जाती है। सड़क तीसरी बार बनाई जाती है। सड़क बनी और फिर योजना बन जाती है सीवर व्यवस्था को मजबूत करने की। तो फिर से सड़क खुदती है और बनती हैं। अगर आपको हमारी बात पर विश्वास हो तो इसे सच मानें कि हमारे यहां की सड़कें एक साल में चार बार बन चुकी है और अभी भी बन रही है। ऎसा आपके यहां भी हो रहा होगा यानी आप भी कम भाग्यशाली नहीं हैं। दरअसल विकास की अवधारणा भी यही होती है। निरंतर विकास कार्य होते रहें यह आवश्यक है।

विकास के कार्य निरंतर होने से ही जनप्रतिनिधियों का विकास हो पाता है। कोई अपने क्षेत्र में सीमेन्ट की सड़कें बनवा दें तो अगला प्रतिनिधि उसे उखड़वा सकता है क्योंकि वह सीमेंटेड सड़को की बजाए डामर की सड़कों का पक्षधर होता है। डामर की सड़कें होंगी तो वर्षभर मरम्मत कार्य चलता रहेगा। विकास के पाठ का एक बिन्दु यह भी है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है कि मूल निर्माण कार्य से अधिक "स्कोप" मरम्मत कार्य में होता है। तालाब बनाना हो तो फटाफट बन जाए मगर तालाब की एक पाल की मरम्मत करना हो तो महीनों लग जाएं। यानी मरम्मत का कार्य पूर्ण गंभीरता से करना होता है। मरम्मत के कार्य में खरपतवार का हस्तक्षेप भी नहीं हो पाता है। खरपतवार वही जो किसी भी फसल के साथ जबरन उगकर मूल फसल की वृद्धि में रूकावट पैदा करती है। विकास के कार्य में भी ऎसी खरपतवार पैदा हो ही जाती है।

कोई कार्य स्वीकृत हुआ नहीं कि अपना कमीशन पाने की जुगाड़ में ये खरपतवारनुमा व्यक्ति लार टपकाते पहुंच ही जाते हैं। हर किसी को कमीशन देते-देते ठेकेदार के मन में वैराग्य भाव उत्पन्न हो जाते हैं। वह सोचने लगता है कि मेहनत मैं करूं और खिलाऊं इन्हें? यानी वह इस खरपतवार से परेशान हो जाता है।

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अकेले पड़ते ईमानदार लोग

अकेले पड़ते ईमानदार लोग
यह हो सकता है कि एस.पी. महांतेश नाम के अधिकारी के बारे में आपने नहीं सुना हो। कर्नाटक के चीफ जस्टिस के घर के सामने इस अधिकारी की धारदार हथियारों से हत्या कर दी गई। जब तक यह अधिकारी अस्पताल में जिंदगी और मौत से लड़ता रहा कर्नाटक के मुख्यमंत्री जो उसी विभाग के मंत्री हैं, देखने तक नहीं गए। महांतेश कर्नाटक के कॉपरेटिव ऑडिट महानिदेशालय में उपनिदेशक थे। इनके आते ही कर्नाटक में ढेरों कॉपरेटिव घोटालों का पर्दाफाश होने लगा। कई बार मारने और डराने की कोशिशों के बाद भी महांतेश का इरादा कमजोर नहीं हुआ। अफसोस, अब यह अधिकारी हमारे बीच नहीं है, क्योंकि हमारे ईमानदार भविष्य के लिए लड़ते हुए मार दिया गया है। मुझे नहीं मालूम कि आप नीमच, शिवपुरी, बंगलूरू, कोलकाता, श्रीगंगानगर और अलवर में महांतेश के बारे में पढ़ते हुए क्या सोच रहे होंगे। शायद यही कि सिस्टम से कौन लड़े। कोई नहीं लड़ सकता। गनीमत है कि महांतेश ने हमारी तरह नहीं सोचा। हमारी सहानुभूति की भी परवाह नहीं की। अपनी और अपने परिवार की जिंदगी दांव पर लगाकर एक के बाद एक घोटाले का पर्दाफाश करते चले गए।

अप्रेल के महीने में दिल्ली में रवींदर बलवानी की हत्या हो गई। पुलिस दुर्घटना बताती रही है। परिवार के लोग हर दूसरे दिन हाथ में बैनर लिए खड़े रहते हैं कि आरटीआई कार्यकर्ता रवींदर बलवानी की हत्या हुई है। उनकी बेटियां समाज और सरकार से गुहार लगाती फिर रही हैं, लेकिन सौ-पांच सौ लोगों के अलावा किसी का कलेजा नहीं पसीजता। जुलाई 2010 में गुजरात हाई कोर्ट के करीब आरटीआई कार्यकर्ता अमित जेठवा की गोली मार कर हत्या कर दी गई। ईमानदार अफसरों के सिस्टम से लड़ने और मारे जाने की घटनाएं मीडिया में जगह तो पा जाती हैं, मगर सरकारों पर असर नहीं पड़ता। ईमानदारी का बिगुल बजाने वाले अफसरों को सुरक्षा देने का कानून अटक-लटक कर ही चल रहा है। अगर हम अपने ईमानदार सिपाहियों के प्रति इतने ही सजग होते, तो एक मजबूत कानून बनने में दस साल न लगते। यही नहीं, अनेक सरकारी संस्थानों और निजी संस्थानों में भी ईमानदार लोगों को परेशान करने की खबरें आती रहती हैं।

संसद में व्हिसिल ब्लोअर विधेयक पड़ा हुआ है। इस बिल में सताने यानी उत्पीड़न को भी विस्तार से नहीं बताया गया है। गुमनाम शिकायत को स्वीकार न करने की बात कही गई है और भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाने वाले को पीडित करने वाले अफसरों के लिए दंड की कोई व्याख्या नहीं की गई है। इस कानून की खामियों पर कई बार चर्चा हो चुकी है। दरअसल किसी बिगुल बजाने वाले को सुरक्षा देने के लिए कानून का इंतजार करना भी ठीक नहीं है। 2004 में ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कानून बनने से पहले भी सुरक्षा का प्रावधान होना चाहिए। इसके बाद भी महांतेश को कोई सुरक्षा नहीं दी गई।

क्या आप जानते हैं कि सत्येन्द्र दूबे ने स्वर्णिम चतुर्भुज योजना में तीस हजार करोड़ रूपये के घोटाले की बात कही थी? क्या आपको पता है कि उन आरोपों का क्या हुआ? क्या सत्येन्द्र दूबे की मौत का इंसाफ सिर्फ इसी बात से मिल जाता है कि कुछ लोगों को आजीवन कैद की सजा दिला दी गई। हमारे सिस्टम ने ऎसा क्या किया, जिससे किसी सत्येन्द्र दूबे को जान जोखिम में डालने की नौबत ही न आए?

इतना ही नहीं, हमारा ध्यान ऎसे लड़ाकों पर तभी जाता है, जब वो मार दिए जाते हैं। मैं ऎसे कई लोगों को जानता हूं, जिन्होंने बैंक से लेकर कॉपरेटिव तक के बड़े घोटाले उजागर किए हैं, मगर उनके विभाग ने उन्हें तरह-तरह से प्रताडित कर मानसिक रूप से विक्षिप्त कर दिया है। आरटीआई ने बिगुल बजाने वालों को हथियार तो दे दिया, लेकिन कार्यकर्ताओं के लिए सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं किया है। जो भ्रष्ट हैं, वो बुलेटप्रूफ जैकेट में चल रहे हैं और जो भ्रष्टाचार से लड़ रहे हैं, वो दिन दहाड़े मारे जा रहे हैं। अब मान लेना चाहिए कि भ्रष्टाचार को लेकर समाज और सियासत का पक्का गठजोड़ हो गया है। जब तक इस गठजोड़ को नहीं तोड़ा जाएगा, महांतेश, मंजूनाथ, नरेन्द्र कुमार जैसे ईमानदार मारे जाते रहेंगे।

व्यवस्था से लड़ना किसी जंग से कम नहीं है। मध्य प्रदेश में ही लोकायुक्त के जरिये ढाई सौ करोड़ से अधिक की संपत्ति जब्त हो चुकी है। जिस स्तर के अधिकारी पकड़े गए हैं उससे पता चलता है कि भ्रष्टाचार में व्यवस्था के कौन-कौन लोग शामिल हैं। एक सवाल खुद से कीजिए। क्या आपको पता नहीं कि यह सब हो रहा है? क्या आप अपने सामाजिक जीवन में ऎसे भ्रष्ट लोगों से नहीं मिलते हैं? आपकी सहनशीलता तब क्यों नहीं टूटती, जब ऎसे लोग सामने होते हैं? तब आप सवाल क्यों नहीं करते? सवाल करने का ढोंग तभी क्यों करते हैं, जब कोई ईमानदार मार दिया जाता है।

दरअसल हम ईमानदारों के इस जंग में ईमानदारी से शामिल नहीं हैं। यह कैसा समय और समाज है कि नरेन्द्र कुमार और महांतेश के मार दिए जाने के बाद कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं है। कोई चीत्कार नहीं है। राजनीति भी तो इसी समाज से आती है। तभी तो व्हिसिल ब्लोअर्स को सुरक्षा देने वाला विधेयक लोकसभा में पास हो जाने के बाद राज्य सभा में पेश होने का इंतजार ही कर रहा है। जल्दी न राजनीति को है न समाज को। हम अपनी पसंद के दल के भ्रष्टाचार से आंखें मूंद लेते हैं और विरोधी दलों पर सवाल उठाते हैं। अपना बचाकर दूसरे का दिखाने से सवाल का जवाब नहीं मिलता। हम आईपीएल जैसे तमाशे में पैसा खर्च करके भीड़ बन जाते हैं, मगर इन ईमानदार लोगों के लिए सड़कों पर नहीं निकलते। हमारे इसी दोहरेपन की दुधारी तलवार पर ईमानदार अफसरों की गर्दनें कट रही हैं।

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Friday, May 25, 2012

आधा पानी बर्बाद हो रहा है शहरों में

नई दिल्ली : सरकार ने माना है कि शहरी इलाकों में पाइपलाइन में लीकेज होने, पानी के अवैध कनेक्शन और चोरी आदि की घटनाओं से तकरीबन 50 परर्सेंट पानी की बर्बादी होती है।

जल संसाधन मंत्री पवन कुमार बंसल ने गुरुवार को लोकसभा में कहा, कई स्टडीज से पता चलता है कि शहरी इलाकों में 30 से 50 पर्सेंट पानी की बर्बादी होती है। इसे नॉन रेवेन्यू वॉटर (एनआरडब्ल्यू) कहा जाता है।

उन्होंने कहा कि 2008-09 के दौरान 28 शहरों में की गई पायलट स्टडी से पता चला कि औसत एनआरडब्ल्यू की मात्रा 39 पर्सेंट है। बंसल ने कहा कि शहरी विकास मंत्रालय ने जानकारी दी है कि पाइपलाइन में लीकेज और चोरी आदि की अन्य घटनाओं से पानी की बर्बादी होती है।

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HTML clipboard  मूर्ख कौन?
एक चरवाहे को कहीं से चमकीला पत्थर मिल गया। चमकीला पत्थर लेकर वह बाजार में गया। फुटपाथ पर बैठे दुकानदार ने वह पत्थर उससे आठ आने में खरीदना चाहा, परन्तु उसने उसे बेचा नहीं। आगे गया तो सब्जी बेचने वाले ने उसका मूल्य लगाया दो मूली। कपड़े की दुकान पर गया तो दुकानदार ने उसका दाम लगाया- थान भर कपड़ा। चरवाहे ने फिर भी नहीं बेचा, क्योंकि उसका मूल्य लगातार बढ़ता जा रहा था।

तभी एक व्यक्ति उसके पास आया और बोला, "पत्थर बेचोगे?" "बेचूंगा, सही दाम मिला तो?" "दाम बोलो" "हजार रूपए" "दिन में सपने देखते हो चमकीला है, तो क्या हुआ।" कहकर वह व्यक्ति आगे बढ़ गया। वह जोहरी था। समझ गया कि चरवाहा पत्थर का मूल्य नहीं जानता। वह चला गया कि फिर आता हूं। उसके जाते ही एक दूसरा जोहरी आया।

पत्थर को देखते ही उसकी आंखें खुल गई। दाम पूछा, तो चरवाहे ने बताया डेढ़ हजार रूपए। जोहरी ने डेढ़ हजार में हीरा खरीद लिया।

अब पहले वाला जोहरी उसके पास आया और बोला, "कहां है तुम्हारा पत्थर?" चरवाहे ने कहा, वह तो बेच दिया। "कितने में?" "डेढ़ हजार रूपए में।" जोहरी बोला, "मूर्ख आदमी, वह हीरा था जो लाखों का था। तुमने कौड़ी के भाव बेच दिया। चरवाहा बोला, "मूर्ख मैं नहीं, तुम हो। वह तो मुझे भेड़ चराते हुए मुफ्त में मिला था। मैंने उसे डेढ़ हजार में बेच दिया । लेकिन तुमने उसका मूल्य जानते हुए भी घाटे का सौदा किया। मूर्ख तुम हो या मैं।" जोहरी के पास अब कोई जवाब न था।

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देखते ही देखते
कसम से आदमी कितना बदल जाता है, इसका अनुमान हमें उनसे मिलने के बाद हुआ। वे हमारे बचपन के भायले थे। भायले भी क्या, जिगर के छल्ले थे। जवानी की बात है। वे हंसते थे तो मानो हरसिंगार के फूल झर रहे हों। वे चलते थे तो मानो एक मस्त अरबी घोड़ा चल रहा हो। वो नाचते थे तो मानो सारी कायनात को अपने संग नचा रहे हों।

उस जमाने में जब आदमी की उम्र इश्क-हुस्न पर शेर कहने की होती थी, तब वे कहा करते थे, "देखते ही देखते दुनिया से उठ जाऊंगा मैं; देखती की देखती रह जाएगी दुनिया मुझे।" उनके मुंह से यह शेर सुनकर हम धक से रह जाते, क्योंकि भरी जवानी में दुनिया से उठने की बात कौन करता है। और सचमुच ऎसा ही हुआ। वे दुनिया से तो नहीं उठे, लेकिन दुनियादारी से उठ गए। दुनियादारी यानी यारबाजी, मस्ती, हंसना-हंसाना और वह सब, जो दुनिया के लिए जरूरी होती है।

ऎसा नहीं कि उन्होंने ब्याह नहीं किया। ऎसा भी नहीं कि उन्होंने बाल- बच्चे पैदा न किए। ऎसा नहीं कि उन्होंने घर नहीं बनाया। उन्होंने इस जहान में वे सारे काम किए, जो एक इंसान करता है, पर बावजूद वे हमें दुनिया से उठे-उठे नजर आए। दुनिया से कटने और दुनिया से उठने में अन्तर है। दुनिया से कटने वाले संन्यासी कहलाते हैं और दुनिया से उठने वाले पैगम्बर। लेकिन हम हैरत में पड़ गए कि वे दुनिया से कटने और उठने के बावजूद न संन्यासी बने और न पैगम्बर।

अभी एक दिन टकरा गए। हमने पूछा, कैसे हो? उन्होंने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न किया, तुम्हें कैसा लगता हूं? हमने कहा, "ठीक ही लग रहे हैं।" वे बोले, "तुम्हें क्या पता कि मैं ठीक हूं?" हमने कहा, "हमने तो अनुमान लगाया। बेटे-बेटी का ब्याह निपटा दिया। ठीक से नौकरी कर ली। रिटायरी अच्छी कट रही है। घर में कार है। अपनी मरजी के मालिक हो।

और क्या चाहिए।" वे बोले, क्या सच वही है जो दिखलाई देता है। भ्रम भी तो सच हो सकता है। मैं बड़ा दुखी हूं। इतना दुखी कोई नहीं था। उनकी बातें सुन हमने कहा, "दुनिया में थोड़ा-थोड़ा दुखी तो सभी हैं। इसीलिए तो तथागत ने उस मृत पुत्र की मां से कहा था कि जाओ उस घर से एक मुटी सरसों ले आओ, जिस घर में कोई दुखी न हो।"

वे बोले, मैं तो जन्म से ही दुखी हूं। हमने कहा, यह असंभव है। क्या आपके जीवन में कभी सुख नहीं आया। वे बोले, मेरा तो जन्म ही एक दुर्घटना है। उनका दार्शनिक अंदाज में कहा गया यह वाक्य सुनकर हमारी बोलती बंद हो गई। लेकिन मन ही मन हमने एक शेर कहा, "जो होनी थी वो बात हो ली कहारों, चलो ले चलो इनकी डोली कहारों।"


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लाखों की खदान, पर गरीब
 

इंदौर/भोपाल। जिनके पास दो वक्त की रोटी का भरोसा नहीं है, वह लाखों की खदान के मालिक हैं। लाखों रूपए का खनिज उनकी खदान से निकलकर बाजार में बिक रहा है, लेकिन उनके आशियाने अब भी को मकान ही हैं। क्या यह संभव है कि लाखों की खदानों के मालिक की हालत ऎसी हो, लेकिन अपने प्रदेश में है। पन्ना जिले के दो मजदूर परिवार कागजों में खदानों के मालिक हैं, लेकिन खदानें दीगर लोगों के पास हैं और वे बिचौलिया बनकर खदान से निकले खनिज को कृषि राज्य मंत्री बृजेद्र प्रताप सिंह के परिजनों को बेच रहे है।

देश के दूसरे हिस्सों की तरह अपने प्रदेश में भी जनजातीय वर्ग, दलितो, पिछडों और गरीबो को भूखंड व खदानों के पटटे सिर्फ इसलिए दिए जाते है ताकि उनकी रेाजी-रेाटी का इंतजाम होने के साथ जीवन स्तर में कुछ सुधार आ सके, मगर सरकारेां की मंशा पूरी नहीं हो पा रही है। इसका उदाहरण है लखुआ अहिरवार व दयाराम। गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने वाले लखुआ व दयाराम के कोटमी बंडोरा में खदान के पटटे हैं, यह पटटे 10-10 वर्ष के लिए दिए गए है, मगर वे सिर्फ कागजी।

ऎसा इसलिए क्योंकि इन दोनों की ही खदानों का संचालन कोई और कर रहा है। दयाराम की खदान को नत्थू सिंह व लुखआ की खदान का संचालन जितेंद्र सिंह कर रहा है। इन दोनों ने सादे कागज पर अनुबंध कर दयाराम व लखुआ से खदाने आठ हजार व नौ हजार रूपए वार्षिक पर अपने कब्जे में ले रखी है।


अवैध खनन के दाग मंत्री के दामन पर
लखुआ और दयाराम की खदानों से निकलने वाले खनिज को नत्थू सिंह व जितेंद्र सिंह राधिका टेडर्स को बेचते है। यह राधिका टेडर्स राज्य के कृषि राज्यमंत्री बृजेंद्र प्रताप सिंह के छोटे भाई लोकेंद्र प्रताप सिंह की पत्नी अंजू सिंह की है। नत्थू व जितेंद्र की अधिकृत फर्म नहीं है और न ही उसका पंजीयन है, फिर भी वह धडल्ले से गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले दयाराम व लखुआ की खदानों का खनिज बेचे जा रहे है। राधिका टैडर्स खरीदे गए खनिज को राज्य के बाहर भेजता है।


जिम्मेदारों ने माना हो रही गड़बड़ी
खदान की लीज किसी भी स्थिति में हस्तांतरित नहीं की जा सकती है, अगर कोई खदान चलाने की स्थिति में नहीं है तो उसे खदान सरकार को ही वापस करना होगी। किसी दूसरे को देना वैधानिक नही है।
शैलेंद्र सिंह, खनिज सचिव


भाई की पत्नी की कंपनी
कृषि राज्यमंत्री बृजेद्र प्रताप सिंह से जब इस बारे में बातचीत की गई तो उन्होंने माना कि राधिका टेडर्स उनके भाई की पत्नी के नाम पर है और खनिज का करोबार किया जा रहा है। साथ ही वे बताते है कि राधिका टेडर्स खनिज की खरीदी नत्थू सिंह व जितेंद्र से करते है, इन दोनों की फर्म पंजीकृत नहीं है, लिहाजा ऎसी स्थिति में राधिका टेडर्स द्वारा दोनों से खरीदे गए खनिज पर एक प्रतिषत अतिरिक्त विRयकर का भुगतान किया जाता है।

सिंह के मुताबिक ऎसा प्रावधान है कि गैर पंजीकृत संस्था से माल खरीदने पर एक प्रतिषत अतिरिक्त विRयकर जमा किया जाना चाहिए। इस नियम का पालन किया जा रहा है। सिंह स्वीकारते है कि राधिका टेडर्स सीधे तौर पर दयाराम व लखुआ से खनिज की खरीदी नहीं करता। उनके पास इस बात का कोई जवाब नही है कि राधिका टेडर्स के दस्तावेजों में विRेता के तौर पर नत्थू व जितेंद्र का नाम दर्ज न होकर दयाराम व लखुआ का ही दर्ज है। इतना ही नहीं खरीदे गए माल का भुगतान किस रूप में अर्थात नगद या चैके द्वारा होता है, इसका भी वे खुलासा नहीं कर पाए।

2 रू. के लिए लड़की को जलाया आइसक्रीम के नाम पर जमा हुआ तेल खा रहे हैं आप

2 रू. के लिए लड़की को जलाया
 

हैदराबाद। भूख से बेजार सात साल की बच्ची ने मंदिर के दानपात्र से दो रूपए क्या उठा लिए, वहां आए एक विद्वान ने सारी इंसानियत भूल बच्ची को गर्म सलाख से दाग डाला। तब बच्ची की मां मजदूरी करने गई हुई थी। घटना विशाखापटनम जिले के मधुरावाड़ा स्थित सिद्धेश्वर स्वामी मंदिर की है। पुलिस के अनुसार मंदिर में पूजा के लिए 17 विद्वानों का दल आदिलाबादसे आया था। शाम को पूजा के दौरान 7 साल की श्रीदेवी ने भगवान के सामने रखी प्लेट से दो रूपए उठा लिए। मंदिर के सफाईकर्मी ने बच्ची को पूजा के लिए आए विद्वान आसवन के सामने पेश कर दिया। आसवन ने मंदिर में चोरी को गंभीर अपराध बताते हुए बालिका की दोनों बाहें गर्म सलाखों से दाग दी।

भूख मिटाने को की चोरी
पुलिस का कहना है कि बच्ची की मां सुबह मजदूरी के लिए गई थी। बच्ची दिन भर भूखी थी। कुछ खाना चाहती थी। इसलिए थाली से दो रूपए उठाए थे। काम से लौटी मजदूर मां की शिकायत पर आसवन को पुलिस ने पकड़ लिया। उसने अपना अपराध कबूल कर लिया है।

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आइसक्रीम के नाम पर जमा हुआ तेल खा रहे हैं आप

अगर हम आपसे कहें कि आप आइसक्रीम के नाम पर जो खा रहे हैं, असल में वह आइसक्रीम है ही नहीं तो? चौंकिए मत, हकीकत कुछ यही है। इन दिनों बिक रहे फ्रोज़न डेज़र्ट दिखने और खाने में भले आपको बिल्कुल आइसक्रीम की तरह ही लगेंगे, लेकिन इनमें मिल्क फैट की जगह सब्जियों के फैट का इस्तेमाल किया जाता है। यह कारोबार खूब फल-फूल रहा है। भारत के 1800 करोड़ के आइसक्रीम मार्केट के 40 पर्सेंट हिस्से पर इसका कब्जा है।

ज्यादातर कंस्यूमर्स को इसका अहसास भी नहीं है कि वे जिस आइसक्रीम को इतने चाव से खा रहे हैं, वह वास्तव में आइसक्रीम है ही नहीं। हिंदुस्तान यूनिलीवर की क्वालिटी वॉल्स, वाडीलाल, लाजा आइसक्रीम और क्रीम कैंडी, कोन और कप में आइसक्रीम के बजाय फ्रोजन डेजर्ट बेचते हैं। इसकी शुरुआत सबसे पहले क्वालिटी वॉल्स ने की थी। दो दशकों से भी कम वक्त में इस प्रॉडक्ट ने देश में अपनी पकड़ मजबूत कर ली है, लेकिन फूड अथॉरिटी के अधिकारियों और अमूल एवं मदर डेयरी जैसी ऑरिजनल आइसक्रीम मेकर कंपनियों का मानना है कि आइसक्रीम के नाम पर फ्रोजन डेजर्ट बेचना ग्राहकों को गुमराह करना है।

रीयल आइसक्रीम दूध के फैट से बनती है, वहीं ये फ्रोज़न डेज़र्ट सब्जियों के फैट से तैयार किए जाते हैं, जो करीब 80 पर्सेंट सस्ता पड़ता है। गुजरात फूड ऐंड ड्रग कंट्रोल


एडमिनिस्ट्रेशन कमिश्नर एच.जी. कोशिया ने कहा,'जिस तरह फ्रोजन डेजर्ट की लेबलिंग होती है और जैसे टीवी कमर्शल के जरिए इसकी मार्केटिंग की जाती है, वह बड़ी चिंता का कारण है।' उन्होंने कहा, 'कंस्यूमर्स को यह मालूम होना चाहिए कि दोनों अलग-अलग उत्पाद हैं। फिर उनकी मर्जी, वे जो चुनें।'

आइसक्रीम मेकर जैसे अमूल, मदर डेयरी जो केवल डेरी फैट का इस्तेमाल करते हैं का कहना है कि फ्रोज़न डेज़र्ट बनाने वाली ये कंपनियां इसे आइसक्रीम बताकर लोगों को गुमराह करने का काम करती हैं। मदर डेयरी में (डेयरी प्रॉडक्ट डिविज़न) के हेड मुनीष सोनी कहते हैं, 'लोग इस फ्रोज़न डेज़र्ट को आइसक्रीम समझकर खाते हैं।'

अमूल और मदर डेयरी जैसी कंपनियां आइसक्रीम के लिए सिर्फ डेयरी फैट का इस्तेमाल करती हैं। मदर डेयरी के हेड (डेयरी प्रॉडक्ट डिविजन) मुनीश सोनी ने कहा, 'कंस्यूमर आइसक्रीम समझकर फ्रोजेन डेजर्ट खा रहे हैं।' आइसक्रीम बाजार में सबसे ज्यादा 40 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले अमूल का कहना है कि ये कंपनियां आइसक्रीम के दाम पर कंस्यूमर को फ्रोजन डेजर्ट खिला रही हैं। गुजरात को-ऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (अमूल) के मैनेजिंग डायरेक्टर आर.एस. सोढ़ी ने कहा, 'कंस्यूमरों को बेवकूफ बनाया जा रहा है। ये दोनों देखने में तकरीबन एक जैसी हैं। ज्यादातर ब्रैंड बहुत छोटे लेटर में फ्रोजन डेजर्ट के बारे में जानकारी देते हैं।' उन्होंने कहा कि डेयरी फैट की कीमत जहां 300 रुपये प्रति किलोग्राम है, वहीं वेजिटेबल फैट सिर्फ 50 रुपए प्रति किलोग्राम में मिल जाता है।

सेहत को नुकसान नहीं
न्यूट्रिशनिस्ट का कहना है कि वेजिटेबल फैट से कोई नुकसान नहीं है। इंडियन कुकिंग में खानेवाले तेल का इस्तेमाल आम बात है, लेकिन यह मिल्क फैट से ज्यादा नुकसानदेह साबित हो सकता है।

अनदेखी की बुनियाद

असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, खासकर निर्माण-कार्य में लगे लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा आदि से जुड़ी समस्याओं का कोई व्यावहारिक समाधान निकालना सरकार के लिए बड़ी चुनौती रही है। इसके मद्देनजर केंद्र ने निर्माण कंपनियों पर भवन एवं अन्य निर्माण मजदूर कल्याण उप-कर का प्रावधान किया। इसके तहत राज्य सरकारों ने निर्माण कंपनियों से छह हजार छह सौ सोलह करोड़ रुपए इकट्ठा किए। मगर विचित्र है कि उसमें से केवल नौ सौ पैंसठ करोड़ रुपए यानी महज चौदह फीसद राशि ही खर्च की जा सकी। इसके पीछे बड़ी वजह यह है कि निर्माण मजदूरों के पंजीकरण पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक देश में करीब चार करोड़ छियालीस लाख लोग निर्माण मजदूर के रूप में काम करते हैं। मगर उनमें से करीब बयासी लाख पंचानबे हजार लोगों का ही पंजीकरण हो पाया है। जाहिर है कि पंजीकरण से वंचित लोगों को उनके कल्याण के लिए जुटाए धन का लाभ नहीं मिल पाता। यह छिपी बात नहीं है कि निर्माण-क्षेत्र में लगातार विस्तार हो रहा है। इसमें काम करने वाले ज्यादातर लोगों को अपने घर से दूर विषम परिस्थितियों में रहना पड़ता है। उन जगहों पर उन्हें न तो रहन-सहन संबंधी माकूल बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं, न जरूरत पड़ने पर उनकी चिकित्सा संबंधी जरूरतें पूरी हो पाती हैं। जिन लोगों के परिवार साथ रहते हैं, उनके बच्चों और गर्भवती महिलाओं को पोषाहार, नियमित जांच, प्रतिरोधक टीके लगाने, शिक्षा आदि से जुड़ी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता। यही वजह है कि कुपोषण और   विषम परिस्थितियों में रहने की वजह से पैदा होने वाली बीमारियों के चलते हर साल लाखों लोग असमय मौत के मुंह में चले जाते हैं।
निर्माण मजदूरों की समस्याओं पर कई अध्ययन हो चुके हैं और कई उपयोगी सुझाव भी सामने आए हैं। पर जब उनके लिए उप-कर के जरिए जुटाई गई राशि का इस्तेमाल करने के लिए सरकारें तत्पर नहीं हैं तो बाकी उपायों के बारे में क्या कहा जाए!
निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के पंजीकरण में कुछ दिक्कतें समझी जा सकती हैं। बहुत-से लोग खेती-बाड़ी के काम से फुरसत पाकर कुछ समय के लिए इस क्षेत्र में मजदूरी करने आते हैं। कुछ समय बाद कई मजदूर अपने काम बदल लेते हैं। ऐसे में निर्माण कंपनियों और पंजीकरण से जुड़े महकमे का तर्क होता है कि निर्माण मजदूर के रूप में उनकी पहचान सुनिश्चित करना कठिन है। मगर हकीकत है कि ऐसे लोगों की तादाद ज्यादा है, जो मुख्य रूप से निर्माण मजदूरी पर निर्भर हैं। लिहाजा, इनका पंजीकरण नहीं हो पाता तो इसमें निर्माण कंपनियों की चालाकी ही सबसे बड़ा कारण है। पंजीकरण को लेकर कंपनियां कन्नी काटती हैं ताकि काम में निहित जोखिम से जुड़ी अपनी जवाबदेहियों से बच सकें। चूंकि ज्यादातर निर्माण मजदूर दिहाड़ी पर काम करते हैं, इसलिए उनकी उपस्थिति आदि का पक्का ब्योरा नहीं रखा जाता। उनके रहन-सहन, स्वास्थ्य आदि से जुड़ी सुविधाओं का ध्यान रखना तो दूर, उनकी मजदूरी तय करने, किसी दुर्घटना में मारे जाने या अपंग हो जाने पर मुआवजे के भुगतान आदि में भी कंपनियां मनमानी करती हैं। सबूत के अभाव या फिर अदालती खर्च उठा पाने का सामर्थ्य न होने के कारण बहुत सारे मजदूर कानून के सहारे अपना हक हासिल नहीं कर पाते। ऐसे में अगर राज्य सरकारें उनके कल्याण कोष के उपयोग के मामले में लापरवाही बरतती हैं तो इसे उनकी असंवेदनशीलता ही जाहिर होती है।

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यह कैसा पढ़ाई का दबाव


गुना। स्कूल टीचर और परिवार के सदस्यों का बच्चों पर पढ़ाई का बढ़ता दबाव अब घर से भागने की वजह के रूप में सामने आया है। एक साल में ऎसे एक सैकड़ा से अधिक मामले सामने आए हैं। इनमें बीस फीसदी बच्चों ने घूमने का शौक पूरा करने घर छोड़ा, तो लड़कियों के घर छोड़ने की वजह परिजनों द्वारा पढ़ाई छुड़ाना और समय से पहले शादी का बढ़ता दबाव रहा। घर छोड़ने के बाद कई बच्चे नशे की गिरफ्त में हैं। इस सच्चाई का खुलासा विशेष किशोर पुलिस इकाई के आंकड़े करते हैं।


एक साल के आंकड़ों पर गौर करें, तो जिले व अन्य शहरों से 160 बच्चे घर से भागे, जिन्हें पुलिस इकाई ने काउंसलिंग के बाद परिजनों को सौंपा। इनमें दस से 14 वर्ष तक के करीब एक सैकड़ा से अधिक बच्चे ऎसे पाए गए, जिन्होंने घर में बढ़ते पढ़ाई के दबाव में घर छोड़ दिया। ऎसे बच्चों से घर छोड़ने का कारण पूछा गया, तो उन्होंने बताया कि घर और स्कूल में अक्सर पढ़ाई पर जोर दिया जाता था। इससे घर से भागना ही मुनासिब समझा। वहीं लड़कियों के मामले में स्थिति पूरी तरह उलट है। इसमें घर छोड़ने की वजह परिजनों द्वारा पढ़ाई छुड़ाने और उम्र से पहले शादी का दबाव रहा।

विशेष किशोर पुलिस इकाई में ऎसी लड़कियों की संख्या करीब एक दर्जन है।

फैक्ट फाइल


घर से भागने वाले बच्चों में अशोकनगर जिले के बच्चे अधिक
बीस फीसदी बच्चों ने ट्रेन में घूमने छोड़ दिया घर
पचास प्रतिशत बच्चे नहीं सह पाए पढ़ाई का दबाव
तीस फीसदी बच्चे घर छोड़ने के बाद नशे का शिकार
छह लावारिस बच्चों को उज्ौन के बालगृह में भेजा गया

लावारिस बच्चों का होगा सर्वे


जिले में लावारिस बच्चों की पहचान करने अब महिला बाल विकास विभाग सर्वे करेगा। विभाग के अधिकारी आरसी त्रिपाठी ने बताया कि ग्रामीण क्षेत्र और शहरी परियोजनाओं में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ अन्य फील्ड वर्कर को सर्वे की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। सड़कों और गली-मोहल्लों में आवारा घूमने वाले बच्चों की भी जानकारी जुटाई जाएगी, ताकि ऎसे बच्चों के पोषण और पुनर्वास का प्रबंध किया जा सके।


विशेष किशोर पुलिस इकाई द्वारा एक साल में घर से भागे 160 बच्चों को परिजनों के हवाले किया गया है। काउंसलिंग के दौरान सामने आया कि ज्यादातर लड़के पढ़ाई का दबाव नहीं झेल सके, तो कुछ ने गरीबी के कारण घर छोड़ा। कई लड़कियां ऎसी भी रहीं, जो परिजनों द्वारा पढ़ाई छुड़ाने और शादी के लिए मजबूर करने के कारण घर से भागीं। मंजू तिर्की, एसआई व इकाई प्रभारी गुना

"मैं पढ़ना चाहती थी"


बमोरी क्षेत्र से कुछ महीने पहले एक लड़की घर से भाग गई थी। इसके बाद पुलिस ने उसे लावारिस हालत में मिलने पर इकाई के हवाले किया। इकाई के सदस्य रामवीरसिंह कुशवाह ने बताया कि काउंसलिंग के दौरान लड़की ने बताया कि वह पढ़ना चाहती है, लेकिन परिजन पढ़ाई छुड़ाकर समय से पहले शादी कराना चाहते थे। इसी वजह से उसने परिवार से नाता तोड़ लिया। इकाई में वह लगभग सात दिन रही। चाइल्ड वेलफेयर कमेटी की मंजूरी के बाद अब इकाई इस बच्ची को शिक्षित करेगी।

नशे से लड़कर संभाला परिवार


पिता की शराब की लत और मां के साथ अक्सर मारपीट ने अशोकनगर के 14 वर्षीय बालक को घर छोड़ने मजबूर कर दिया। तभी गलत लोगों की संगत ने उसे केमिकल नशे का आदी बना दिया। इस बीच पुलिस ने तीन बार बालक को बरामद कर किशोर इकाई के हवाले किया। लेकिन शराबी पिता के कारण वह घर से भागता रहा। इकाई के सदस्यों की मानें, तो उचित काउंसलिंग के बाद आज वह बालक गुना में रहकर न सिर्फ रोजगार से जुड़ा है।

बल्कि परिजनों को आर्थिक मदद कर सहारा बना हुआ है।

बच्चे को बनाया भिखारी
किशोर इकाई में वर्ष 2011 में बाल शोषण का मामला भी आया, जो कोर्ट में विचाराधीन है। सदस्यों के मुताबिक एक बच्चा घर से गायब हो गया था, जिसकी परिजनों से पुलिस में गुमशुदगी भी दर्ज कराई। इस बीच पुलिस को बच्चा सड़क पर भीख मांगता हुआ मिला। पूछताछ में बच्चे ने बताया कि डरा-धमकाकर उससे भीख मंगाई जा रही है। इसके बाद बच्चे को किशोर इकाई में भेजा गया, जहां से उसे काउंसलिंग के बाद परिजनों को सौंप दिया गया। किशोर इकाई के अनुसार मामला अभी कोर्ट में विचाराधीन है।

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डाक्टर ने इलाज के लिए मंगवाई "भीख"
 

चित्रकूट। गरीबी पत्थर से भी कठोर होती है, इसका जीता-जागता उदाहरण उस समय देखने को मिला जब उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले के सरकारी अस्पताल के डज्ञक्टर ने एक गरीब बच्चे का इलाज अस्पताल में करने के बजाय उसे अपने घर पर फीस के साथ आने को कहा, मगर फीस का जुगाड़ न होने पर इस गरीब को बीमार बच्चे के साथ सरेआम सड़क पर "भीख" मांगनी पड़ी।

मामला कुछ यूं है कि गरीबी से तंगहाल रैपुरा थाना क्षेत्र के खजुरिहा गांव का बलवंता कर्ज लेकर गंभीर बीमारी से जूझ रहे अपने 10 साल के भतीजे राहुल को लेकर बुधवार को चित्रकूट के सरकारी अस्पताल में इस उम्मीद से पहुंचा कि यहां महज एक रूपए के पर्चे पर बच्चे का उपचार हो जाएगा। उसे क्या मालूम था कि सरकारी चिकित्सक भीख मांगने के लिए मजबूर कर देगा।

बलवंता ने अस्पताल में पर्चा तो बनवा लिया, मगर आपातकालीन सेवा में तैनात एक सरकारी चिकित्सक ने बच्चे को देखते ही सलाह दे दी कि इस बच्चे को गंभीर बीमारी है। अस्पताल में इलाज संभव नहीं है, इसलिए वह फीस का इंतजाम कर आवास में आए।

मजबूर बलवंता क्या करता? उसने बीमार बच्चे के साथ जिला कचहरी से लगी सड़क में सरेआम "भीख" मांगना शुरू कर दिया। बलवंता ने बताया कि कई दिनों से उसका भतीजा राहुल किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित है।

उसने बताया कि आर्थिक हालत इतनी कमजोर है कि सरकारी अस्पताल तक पहुंचने के लिए भी उसे गांव में कर्ज लेना पड़ा है। उसने बताया कि सरकारी अस्पताल के चिकित्सक ने अपने घर में इलाज के लिए बुलाया था, मगर उसके पास पैसे नहीं है कि वह डॉक्टर की फीस चुका पाए। इसलिए, भीख मांगना मजबूरी है।

इस मसले पर सरकारी अस्पताल चित्रकूट के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक (सीएमएस) डॉ. देशराज सिंह ने बताया कि अस्पताल के बजाय घर में बुलाना शासन की मंशा के विपरीत है, मैं इस मामले की खुद जांच करूंगा और दोषी चिकित्सक के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होगी।

चित्रकूट के मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) डॉ. आर.डी. राम ने बताया कि उन्हें मीडिया के जरिए इस मामले की जानकारी मिली है। उप मुख्य चिकित्साधिकारी सदर को जांच सौंप दी गई है।

इस मामले से लोगों के इस आरोप पर मुहर लग गई है कि बलवंता जैसे तमाम गरीब रोजाना सरकारी चिकित्सकों की लापरवाही के शिकार हो रहे हैं और महज "कुछ" पाने की लालच में चिकित्सक अपने कर्तव्य को धता बता रहे हैं। इससे जहां सरकार की मंशा को ठेस पहुंचती है, वहीं मानवता भी तार-तार हो रही है।


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युवाओं आत्महत्या नहीं है समाधान


यु वाओं द्वारा आत्महत्या, इन दिनों टीवी चैनलों की "ब्रेकिंग न्यूका" और समाचार-पत्रों की "सुर्खियां" हैं। एक सर्वेक्षण द्वारा यह बात सामने आई है कि अपना लक्ष्य पूर्ण नहीं होने के कारण "मादक सपनों में डूबी" किशोर पीढ़ी अपराधग्रस्त और "कैरियर कान्शस" युवा पीढ़ी अवसादग्रस्त हो जाती है।

अपराधग्रस्त हत्या की ओर तथा अवसादग्रस्त आत्महत्या की तरफ बढ़ते हैं। कभी-कभी तो अपराधग्रस्त और अवसादग्रस्त दोनों ही आत्महत्या को विकल्प बनाते हैं। विशेषकर युवा पीढ़ी ने तो, ऎसा लगता है कि आजकल अवसाद और आत्महत्या से ही हाथ मिला लिया है।

प्रश्न उठता है कि किन कारणों से युवा आत्महत्या कर रहे हैं? क्या है युवाओं को आत्महत्या से रोकने का उपाय? जहां तक पहले प्रश्न का मामला है तो उसका उत्तर यह है कि युवाओं में आत्महत्या के प्रचलन का पहला कारण है परीक्षाओं/ विशेषकर प्रतियोगिता प्ररीक्षाओं में असफलता।

वर्तमान युवा पीढ़ी दरअसल कैरियर को लेकर बहुत "कान्शस" (सचेत) है, बल्कि यह कहना उचित होगा अब तो "सेंसिटिव" (संवेदी) हो गई है। "कैरियर कान्शस" से भी खतरा तो है लेकिन "कैरियर सेंसिटिव" से कम। बस यही वह बिंदु है अर्थात युवा पीढ़ी का अपने कैरियर को लेकर "सचेत" होने की बजाय "संवेदी" होना, जिसकी वजह से असफलता मिलने पर वह "ऊब" जाती है और अवसाद में "डूब" जाती है। यह अवसाद कभी-कभी इतना बढ़ जाता है कि युवक/युवती आत्महत्या कर लेते हैं। इन दिनों प्रतियोगिता परीक्षाओं में असफल रहने से उपजे अवसाद के कारण आत्महत्या का ग्राफ बढ़ रहा है।

एक वाक्य में यह कि प्रतियोगिता परीक्षा में सफल रहने पर युवक/युवती का "इम्प्रेशन" बढ़ता है जबकि असफल रहने पर "डिप्रेशन"। लगातार "डिप्रेशन" आत्महत्या का कारक है। दूसरा कारण है "प्रेम प्रकरण" में असफलता। यह देखा गया है कि किशोरावस्था से ही "विपरीत लिंगी आकर्षण" पैदा होता है जो युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते ही "प्रेम" में परिवर्तित हो जाता है। कॉलेज के दौर में युवक-युवती "सेमेस्टर परीक्षा" की तैयारी के बजाय "प्रेम-परीक्षा" की तैयारी में ज्यादा व्यस्त रहते हैं। इसका परिणाम असफलता के रूप में सामने आता है, तो युवती तथा युवक आत्महत्या को "आसरा" बनाते हैं।

इन दिनों समाचार-पत्रों में ये शीर्षक बहुत पढ़ने को मिल रहे हैं, जैसे- प्रेम में निराश युवक ने आत्महत्या की, युवती ने प्रेम में असफल रहने पर पंखे से लटककर मौत को गले लगाया, युवा प्रेमी जोड़े ने साथ-साथ जहर खाया। ये बताते हैं कि प्रेम प्रकरण में कामयाबी नहीं मिलना (इसके दो पक्ष हैं, एक तो युवक द्वारा युवती को नकार देना या युवती द्वारा युवक को नकार देना तथा दूसरा परिवार द्वारा विवाह की अनुमति नहीं देना) भी युवक-युवती को आत्महत्या की ओर धकेलता है। तीसरा कारण है टीवी चैनलों द्वारा हिंसा और अश्लीलता परोसना। अवसाद को छोड़ दें तो "रियल्टी शो" दरअसल "क्रुएलटी शो" हो गए हैं। कई चैनलों द्वारा तो हिंसा, अश्लीलता और नकारात्मकता इस तरह परोसी जा रही है कि बच्चे, हिंसक, किशोर, अपराधी और युवा आत्मघाती हो रहे हैं। सवाल यह है कि युवाओं को आत्महत्या से रोकने के लिए क्या उपाय हों? कई उपाय हैं।

पहला तो यह कि प्राइमरी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक "जीवन जीने की कला" या "सकारात्मक जीवन-दर्शन" विषय पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। दूसरा, यह कि परीक्षाओं/ प्रतियोगिता परीक्षाओं के परिणामों में "पारदर्शिता" लाई जाए। तीसरा, यह कि प्रेम करने वाले समझें कि प्रेमी/ प्रेमिका के प्रेम से बढ़कर माता-पिता का प्रेम होता है। चौथा, यह कि टीवी चैनलों के नकारात्मक कार्यक्रमों को रोका जाए। वास्तव में युवाओं को यह समझना होगा कि सकारात्मकता से ही दूर होगा व्यवधान, आत्महत्या नहीं है समाधान!

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अच्छाई और बुराई का बोझ

बिल्ली का एक छोटा बच्चा भी जानता है कि क्या चीज पास दिखे तो भाग जाना चाहिए और क्या नजर आए तो उसे दबोच लेना चाहिए। लेकिन हमारा बच्चा काफी बड़ा हो जाने के बाद भी ऐसी बुनियादी बातों में गलतियां कर बैठता है। ऐसा क्यों? सभी जीव अपने बच्चों को ऐसे कौशल सिखाते हैं, जो उनके जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं।

अकेला इंसान ही है जो अपने बच्चों को नैतिकता सिखाता है। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए। इसकी वजह शायद यह हो कि इंसानों का जिंदा रहना उनके निजी प्रयासों से ज्यादा एक-दूसरे की मदद और आपसी भरोसे पर निर्भर करता है। लेकिन अभी के लिए यह समझ पर्याप्त नहीं है।

हम अपने बच्चों को अपनी औकात भर अच्छा बनना सिखाते
हैं, लेकिन वास्तविक दुनिया का सामना होते ही उनकी अच्छाई उनकी दुश्मन बन जाती है। जिंदा रहने के लिए उन्हें बुराई से समझौता करना पड़ता है। बल्कि घुटने टेक कर उसके सामने गिड़गिड़ाना पड़ता है। ठीक है, हम उन्हें बुराई नहीं सिखा सकते, लेकिन समय रहते इसकी पहचान तो करा सकते हैं।

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न्याय की गति

अदालतों का कामकाज अत्यंत धीमी गति से चलने के कारण जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या बढ़ती गई है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक देश की लगभग चौदह सौ जेलों में करीब तीन लाख सत्तर हजार कैदी हैं। इनमें सत्तर फीसद विचाराधीन कैदी हैं। यह बेहद अन्यायपूर्ण स्थिति है कि बगैर अदालत से सजा हुए इतनी बड़ी संख्या में लोग बरसों-बरस कैद में रहने को विवश हों। यह स्थिति जेलों की व्यवस्था पर भी एक भारी और अनावश्यक बोझ है। इसलिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के इस सुझाव को स्वीकार किया जाना चाहिए कि जेलों में सांध्यकालीन अदालतें लगाई जाएं, ताकि छोटे-मामलों का जल्दी से निपटारा हो और विचाराधीन कैदियों की संख्या में तेजी से कमी लाई जा सके। विचाराधीन कैदियों के मामलों के निपटारे के लिए वैकल्पिक उपाय किए जाने की बात पहले भी उठी है। दो पालियों में अदालत चलाने, लोक अदालत लगा कर मामलों की सुनवाई करने से लेकर हल्के या मामूली अपराधों के आरोप में जेल में डाल दिए लोगों की सजा में कमी करने और मामलों को तेजी से निपटाने जैसी घोषणाएं की गर्इं। लेकिन अब तक ऐसे प्रयास छिटपुट तौर पर ही हो पाए हैं। अदालतों की ओर से निर्धारित तारीखों पर कई बार नौकरी या दूसरे किसी कारण से गवाहों के उपस्थित न होने के चलते सुनवाई टलती रहती है। शाम के वक्त अदालतें लगाने से न सिर्फ ज्यादा मामलों की सुनवाई संभव हो सकेगी, बल्कि गवाहों को बिना अपने काम का नुकसान किए अदालत जाने में सुविधा होगी।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश होने के नाते बालाकृष्णन की यह बात काफी   महत्त्वपूर्ण है कि कई बार लोगों को गैरजरूरी रूप से जेल में बंद कर दिया जाता है। यह भी छिपा नहीं है कि किसी आपराधिक घटना के बाद होने वाली गिरफ्तारियों के वक्त पुलिस का रवैया कई बार भेदभावपूर्ण होता है। गौरतलब है कि विचाराधीन कैदियों में सबसे ज्यादा तादाद वैसे लोगों की है जो पैसे के अभाव के कारण अपने लिए वकील या मुकदमा लड़ने का खर्च नहीं उठा पाते। इसके अलावा, ऐसे मामलों की भी कमी नहीं है जिनमें जमानती धाराओं में बंद आरोपी जमानत लेने वाला नहीं मिल पाने के कारण जेल से बाहर नहीं आ पाते। यह एक तरह से न्याय के बाद का वह अन्याय है, जिसका कारण महज किसी का गरीब होना है। इसलिए आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि गरीब कैदियों को लिए सरकार की ओर से कानूनी मदद मुहैया कराई जाए।
विचाराधीन कैदियों का मसला सिर्फ जेल के प्रबंध से जुड़ा हुआ नहीं है। उससे कहीं ज्यादा गंभीर पहलू यह है कि बड़ी तादाद में लोग सिर्फ इसलिए कैद हैं, क्योंकि फैसले लंबित हैं। कई ऐसे लोग हैं जिन पर लगे आरोप साबित भी हो जाएं तो उसके लिए जो अधिकतम सजा हो सकती है, उससे ज्यादा वक्त वे पहले ही जेल में गुजार चुके हैं। कुछ साल पहले एक खबर आई थी कि एक महिला ने करीब सैंतीस साल विचाराधीन कैदी के रूप में गुजारने के बाद जेल में ही दम तोड़ दिया था। इस संदर्भ में लगभग साढ़े चार साल पहले पचास साल पुराने एक मामले की सुनवाई के दौरान की गई सुप्रीम कोर्ट की वह टिप्पणी याद रखनी चाहिए कि अगर न्यायपालिका में लोगों का भरोसा बहाल रखना है तो लंबे समय से लटके मुकदमों के निपटारे की कोई व्यवस्था करनी होगी।


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ऎसा भी प्रेम...


एक फकीर बहुत दिनों तक बादशाह के साथ रहा। बादशाह का बहुत प्रेम उस फकीर पर हो गया। प्रेम भी इतना कि बादशाह रात को भी उसे अपने कमरे में सुलाता। कोई भी काम होता, दोनों साथ-साथ ही करते।

एक दिन दोनों शिकार खेलने गए और रास्ता भटक गए। भूखे-प्यासे एक पेड़ के नीचे पहुंचे। पेड़ पर एक ही फल लगा था। बादशाह ने घोड़े पर चढ़कर फल को अपने हाथ से तोड़ा। बादशाह ने फल के छह टुकड़े किए और अपनी आदत के मुताबिक पहला टुकड़ा फकीर को दिया।

फकीर ने टुकड़ा खाया और बोला, "बहुत स्वादिष्ट! ऎसा फल कभी नहीं खाया। एक टुकड़ा और दे दें। दूसरा टुकड़ा भी फकीर को मिल गया। फकीर ने एक टुकड़ा और बादशाह से मांग लिया। इसी तरह फकीर ने पांच टुकड़े मांग कर खा लिए। जब फकीर ने आखिरी टुकड़ा मांगा, तो बादशाह ने कहा, "यह सीमा से बाहर है। आखिर मैं भी तो भूखा हूं। मेरा तुम पर प्रेम है, पर तुम मुझसे प्रेम नहीं करते।"

और सम्राट ने फल का टुकड़ा मुंह में रख लिया। मुंह में रखते ही राजा ने उसे थूक दिया, क्योंकि वह कड़वा था। राजा बोला, "तुम पागल तो नहीं, इतना कड़वा फल कैसे खा गए?" उस फकीर का उत्तर था, "जिन हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले, एक कड़वे फल की शिकायत कैसे करूं? सब टुकड़े इसलिए लेता गया ताकि आपको पता न चले।

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पानी लाने के लिए एक और शादी कर ली!

 ठाणे।। एक आदमी को गांव में सूखे की वजह से तीसरी शादी करने के लिए मजबूर होना पड़ा! शाहपुर तालुके के देंगलमल गांव में 65 साल के रामचंद्र (बदला हुआ नाम) ने बताया कि मेरी पहली पत्नी बीमार रहती है और 13 लोगों के परिवार के लिए पानी लाने दूर नहीं जा सकती, जबकि दूसरी पत्नी काफी कमजोर है।

रामचंद्र के परिवार में 3 बेटे, उनकी पत्नियां और 3 पोते हैं। वह अपनी 3 बेटियों की शादी कर चुके हैं और वे अपनी ससुरालों में हैं।

रामचंद्र ने बताया, 'मेरी पहली शादी 20 साल की उम्र में
हुई थी। पहली पत्नी से 6 बच्चे हुए।' जब पहली पत्नी बीमार पड़ी तो रामचंद्र ने यह सोचकर दूसरी शादी की कि दूसरी पत्नी घर के काम देख लेगी। लेकिन, दूसरी पत्नी इतनी कमजोर थी कि वह घर के काम नहीं कर पाती थी। आखिरकार 10 साल पहले रामचंद्र ने तीसरी शादी की।

रामचंद्र अपनी शादी के पक्ष में तर्क देते हुए बताते हैं कि उनके गांव में 6 महीने तक पानी की बहुत किल्लत थी। उन्हें बगल के गांव से पानी लाने के लिए डेढ़ किलोमीटर दूर जाना होता था और कई बार 3 किलोमीटर दूर भत्सा नदी तक भी।

गांववालों ने पहले सोचा कि वह अपने शारीरिक सुख के लिए तीसरी शादी कर रहे हैं। गांव के हुसैन शेख बताते हैं, 'पहले हमने उनकी तीसरी शादी का विरोध किया, लेकिन बाद में हमें लगा कि वह ठीक कर रहे हैं। अब तीसरी पत्नी उनके घर के लिए पानी का इंतजाम कर लेती है।'

अपनी बहू के साथ रोज पानी ढोने में 5 घंटे खर्च करने वाली 70 साल की साकरी शेंडे कहती हैं, 'ज्यादातर रामचंद्र की तीसरी पत्नी ही पानी ढोती है। जब वह बीमार पड़ती है, तब घर के बाकी लोग पानी ढोते हैं।'

Thursday, May 17, 2012

बलात्कार का एक चेहरा यह भी



HTML clipboard बलात्कार एक ऐसा अपराध है जो पीड़ित महिला को भीतर तक तोड़ देता है। जिसके कारण पीड़िता जीते जी मर जाती है। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि, ''बलात्कार की पीड़ित महिला, बलात्कार के बाद स्वयं अपनी नजरों में ही गिर जाती है, और जीवन भर उसे उस अपराध की सजा भुगतनी पड़ती है जिसे उसने नहीं किया।''
बलात्कार को किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं किया जा सकता, वस्तुतः दुनिया भर की औरतें बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों का शिकार होती हैं। बलात्कार अब शहरों की सीमाओं को लाघंकर गांव-कस्बों में भी पहुंच गया है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 'भारत देश में प्रतिदिन लगभग 50 मामले बलात्कार के थानों में पंजीकृत होते हैं।' इस प्रकार भारत भर में प्रत्येक घंटे दो महिलाएं बलात्कारियों के हाथों अपनी अस्मत गंवा देती है। लेकिन आंकड़ों की कहानी पूरी सच्चाई ब्यां नहीं करती।
हालांकि बलात्कार अधिकतर अनजाने लोगों द्वारा किया जाता है, लेकिन अब ऐसे मामले भी सामने आ रहे हैं जिनमें किसी परिचित द्वारा ही बलात्कार किया गया। इन परिचितों में सहपाठी, सहकर्मी, अधिकारी, शिक्षित और नियोक्ता अधिक होते हैं। ''विश्व स्वास्थ संगठन के एक अध्ययन के अनुसार, ''भारत में प्रत्येक 54वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।'' वही महिलाओं के विकास के लिए केंद (सेंटर फॉर डेवलॅपमेंट ऑफ वीमेन) द्वारा किए गए एक अध्ययन ने जो आंकड़े प्रस्तुत किए वो चैकाने वाले थे। इसके अनुसार, ''भारत में प्रतिदिन 42 महिलाएं बलात्कार का शिकार बनती हैं। इसका अर्थ है कि प्रत्येक 35वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।''
क्या यह पूरी सच्चाई ब्यां करती है कि बलात्कार के आंकड़ों से बलात्कारों की संख्या निर्धारित की जाए। शायद हम एक पक्ष की बात करते नजर आयेंगे, क्योंकि अगर बलात्कार की पृष्ठभूमि की बात करें तो हम स्वतः समझ जायेंगे कि आज के परिप्रेक्ष्य में बलात्कार हो रहा है या मात्र किसी दबाव या रंजिश के चलते इसको स्त्री समुदाय एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं। शायद मेरी इस टिप्पणी से बहुत सारे लोग सहमत न हो पर, हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।
अगर बलात्कार की खबरों पर चर्चा करें तो ऐसी बहुत सारी खबरें हमारे सामने से गुजरती है जिसको गले से उतारना मुश्किल लगता है। एक खबर, '28 साल के युवक ने 32 वर्ष की महिला को अपनी मोटर साइकिल में लिफ्ट दी, और फिर खेत में ले जाकर बलात्कार किया। एक और खबर, 20 साल के युवक ने 19 साल की लड़की को पुलिया के नीचे खीच कर बलात्कार किया। ऐसी तमाम खबरों से हम समाचारपत्र व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा रूबरू होते रहते हैं। इनमें कितनी सच्चाई है यह मैं और आप नहीं बल्कि वो दोनों ठीक तरह से बता सकते हैं।
आज के परिपे्रक्ष्य में जिस तरह का माहौल हमारे बीच में तेजी से पनपा है उससे हम सब अंजान नहीं हैं कि किस तरह युवक और युवती दोनों में प्रेमालाप पनपता है और फिर एक समय सीमा के उपरांत यह प्रेम शारीरिक संबंधों में तबदील हो जाता है। ऐसा नहीं है कि प्रेम के बाद इन लोगों के बीच संबंध बने ही, परंतु अधिकांश 10 में से 9 लोगों के बीच संबंध स्थापित हो ही जाते हैं, जो समाज की नजर से नहीं आते। इसे एक विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण कहें या फिर शरीर में आये हारमोन का बदलाव, सोचने वाली बात है। वहीं इस लुकाछिपी के खेल में कभी-कभार इनके संबंधों की जानकारी लड़की के परिजनों को पता चल जाती है तो सारी प्रेम कहानी एक सिरे से खारिज कर लड़की के परिवार वाले लड़की पर दबाव बनाकर लड़के पर बलात्कार का झूठा आरोप लगवा देते हैं। जिसकी सुनवाई हमेशा से ही लड़की के पक्ष में होती है। क्यांेकि लड़की को पीड़ित के दृष्टिकोण से देखा जाता है।
बलात्कार का एक और चेहरा हमारे समाने परिलक्षित होता है जिसकी हकीकत से सभी बेखबर और पुलिस के नजरियें से इन खबरों को प्रकाशित करने वाले पत्रकार और समाज का एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग इस तरह के प्रेमालाप को बलात्कार मान लेता है। मैं यह नहीं कर रहा हूं कि बलात्कार नहीं होते, बलात्कार होते हैं, नन्हीं बच्चियों के साथ, वृद्धाओं के साथ, सामूहिक लोगों द्वारा, अपनी हवस का शिकार इन लड़कियों को बना लेते हैं। जो कभी-कभी समाज के समाने आ जाती हैं और बहुत बार एक चार दीवारी में दम तोड़ देती हैं। फिर भी एक लड़का एक लड़की के साथ बलात्कार नहीं कर सकता जब तक उनकी सहमति न हो। इस बात को खारिज करने के लिए महिला समुदाय मेरे विपक्ष में खड़ी हो सकती हैं, इसके साथ-साथ शायद एक वर्ग मेरे भी पक्ष में खड़ा हो जो मेरी बात से सहमति रखता हो, कि बलात्कार का एक और चेहरा जो समाज के समाने नहीं आ पाता और उसे बलात्कार का नाम दे दिया जाता है।
इस आलोच्य में कहा जाए तो बलात्कार के कानून में संशोधन की आवश्यकता महसूस होती है। कि बलात्कार की पूछताछ दोनों पक्षों से सख्ती से होनी चाहिए, यदि बलात्कार हुआ है और सारे सबूत बलात्कारी के विपक्ष में जाते है तो उसे सजा होनी चाहिए। जबकि पुलिस पूरे मामलें को एक पक्ष से न देखकर विभिन्न दृष्टिकोणों से इसकी जांच करें कि क्या इनके बीच कभी कोई प्यार जैसा संबंध या फिर किसी रंजिश के चलते तो ऐसा नहीं किया जा रहा है। इसकी गहनता से जांच होनी चाहिए। तब जाकर बलात्कार की हकीकत सबसे समाने आ सकेगी।
प्यार जिंदगी का वह खुबसूसूरत अहसास

प्यार जिंदगी का वह खुबसूसूरत अहसास है जिसे हर कोइ महसूस करना चाहता हैं। एक ऐसा पवित्र जस्बाद जो हर रिश्ते की बुनियाद है। इस अहसास को अगर महसूस करों तो मानो जन्नत मिल जाती है, रब तक पहुंचने का यह सबसे आसान तरीका है। सच्चा प्यार और रब दोनों ही बडी मुश्किल से मिलते हैं। प्यार का रिश्ता बड़ा ही अटूट रिश्ता है, जो कुछ पल का नहीं जंम जंमातर का होता है। यह एक पल का नहीं एक साल का नहीं यह रिश्ता तो सदियों का होता है। प्यार किसी से कभी भी हो सकता है। प्यार के अनेक रुप होते है। मां का प्यार भाइ बहन का प्यार दोस्तों का प्यार। सबके लिए प्यार की परिभाषा अलग अलग है। लेकिन किसी ने प्यार में सच्चे दोस्त को पाया तो किसीने दोस्त में सच्चे प्यार को पा लिया। अंत में जीत सच्चे प्यार की ही होती है। सच्चे प्यार की तो लोग मिसाल दिया करते है। लैला मजनू, हीर रांझा, सोनी महीवाल, शाहजहान मुमताज,इनके प्यार के किस्से तो इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षर में लिखे गये थे। इनकी प्यार की ऊंचाइ को छूना सबके बस में नहीं है।
प्यार और सेक्स एक सिक्के के दो पहलू है। यह एक दूसरे के साथ ही चलते है, मगर यह जरुरी नहीं की हर रिश्ते में सेक्स हो, हर वह रिश्ता कामयाब है जो सेक्सु्अल अपील करता हो। किसी भी रिश्ते की बुनियाद प्यार और विश्वास होनी चाहिए नाकि सेक्स जैसे बाहरी जस्बाद, लेकिन आज के जमाने में प्यार के रिश्तों में मिलावट होने लगी है। लोग प्यार के नाम पर सेक्स परोसते है,उनके नजर में प्यार बस सेक्स करने का एक आसान सा जरीया हो गया है।
सेक्स को प्यार के साथ जोड़कर लोग प्यार जैसे पवित्र शब्द को रुसवा करने लगे है। प्यार का अनादर होने लगा है, लेकिन प्यार तो प्यार ही होता है। जंमों के रिश्ते बस पल भर की मौज या जरूरत बनकर रह गये है। आजकल तो हर पल रिश्ते बदलते है। पहले कहा जाता था कि हमारा समाज एक सोया हुआ समाज था, लेकिन अब यह समाज जाग चुका है। लोगों की जरूरत बढ़ गयी है, कपड़ा,रोटी व मकान के साथ साथ लोगों की आम जरूरतों में अब सेक्स भी शामिल हो गया है। जो बातें पहले बंद घरों में होती है अब वह खुले आम बाजारों में होने लगी है। पुराने जमाने की औरतों को कहां जाता था कि अगर वह अपनी पति को खुश नहीं रख पाई तो उनका जीवन व्यर्थ है। इसका क्या मतलब है…..तो क्या अगर वह अपने पति को सेक्सुअली खुश करती है तो ही उनका रिश्ता सफल है वरना नहीं ….अब सीधे औरत से पूछा जाता है कि बिस्तर पर आप अपने पति को कितने अंक देती है…..आज ढोल नगारे बजाकर यह बातें की जाती है…प्यार तो जैसे कहीं खो सा गया है।
आज लोगों को अगर प्यार है तो सिर्फ इंसान के शरीर से नाकि जस्बादों से। प्यार का रिश्ता भुख व हवस का बनकर रह गया है। प्यार तो मन से मन का मिलन है। लेकिन कुछ लोग तन से तन के मिलन को प्यार कहते है। प्यार जैसे चार दिवारों में बंद होकर रह गया है।
किसीके नाम ना बताने की शर्त पर…प्यार की यह कहानी सुनो
एक रिश्ता सो काल्ड प्यार का अगर इसे प्यार कहे तो गलत होगा। नए प्यार का अहसास था जिंदगी बहुत खुबसूरत,रंगीन और सुहानी लग रही थी..हमने साथ में काफी वक्त बिताया, ढेर सारे सपने सजाये साथ मे घुमना फिरना…लगा जैसे मेरे पैर तो जमीन पर ही नहीं है। नई जिंदगी मिल गयी हो जैसे…जीने मरने की कसमे ढेर सारे वादे किये।फिर अचानक उम्मीदें बढने लगी उसकी कामनाओं का सागर गहरा होता गया, प्यार जैसे कहीं खोने सा लगा उसे मुझसे कम मेरे जिस्म से ज्यादा प्यार होने लगा। वह मेरे पास तो आता था लेकिन मेरे लिए नहीं अपनी भुख मिटाने के लिए। मैने तो सुना था प्यार तो दो आत्माओं का मिलन है मगर यह क्या हुआ….यह प्यार नहीं एक सौदा था। तन का सौदा…धीरे धीरे मैं उससे दूर होती गई। बहुत दूर…..मैं पूछती हूं क्या यही प्यार है….मैने तो प्यार किया और उसने सौदा…….
राधा ने भी किशन से प्यार किया था, क्या उसने किशन को पाया? प्यार का दूसरा नाम त्याग, इन्तजार बलिदान और विश्वास है। किशन अंत में रुक्मिणी के ही हुए। इसका यह मतलब नहीं हुआ कि राधा का प्यार सच्चा नहीं था। आज भी लोग राधा किशन की जोडी को ही अमर मानते है और साथ में उन दोनों की ही पूजा करते है। क्योंकि राधा ने कभी किशन को पाने की कोशिश नहीं की। अगर आपका प्यार सच्चा हो तो वह अमर हो जाता है। प्यार देने का नाम है। राधा के जीबन का अर्थ किशन थे। मीरा जो किशन की दीवानी थी। लोगो की इतनी तोहमत लगाने के बाद भी उसके लबो पर सिर्फ नाम होता था तो भगबान श्री कृष्ण का। त्याग और बलिदान की मूरत बनी। अपना सारा जीबन ब्यतित किया किशन के चरणों में। जहर का प्याला भी पिया हंसते हंसते। तो यह क्या प्यार नहीं था?

एक माँ जो अपने बच्चे को नौ महीने पेट में पालती है। इतना दर्द सहती है तो क्या उस ममता में प्यार नहीं है? एक दोस्त जो अपनी दोस्ती के लिए कुछ भी कर जाता है हर दुःख सुख बांटता है तो क्या यह प्यार नहीं है? वह सब सेक्सुअली किसीसे जुडे नहीं है तो क्या वह एक दूजे से प्यार नहीं करते? उन्होंने तो परमात्मा से मिलने का रास्ता बनाया है। हमने यहाँ प्यार के कितने रंग और रूप देखे। प्यार सिर्फ ढाई आखर का एक शब्द नहीं है, इस शब्द में पूरी दुनिया समाई है।

नाम ना बताने के शर्त पर एक और प्यार के अहसास से मिलते है।
वह आया कुछ पल के लिए। जाते जाते ढेर सारा प्यार का अहसास दे गया। एक रात आयी और चली गयी। कितने सपने सजाये लगा के मुझे भी प्यार हो सकता है, मैं भी प्यार के लायक हूं। लेकिन क्या सिर्फ एक ही रात के लिए। मैंने तो उस एक रात में अपनी पूरी दुनिया जिली, एक नयी ज़िन्दगी से मिली। क्या वह प्यार पल भर का ही था ? फिर छा गई काली अँधेरी रात। तंहाइ के बादल फिर मंडराने लगे। दे गया मुझे ज़िन्दगी भर का इंतजार। क्या वह प्यार नहीं था ? मैंने तो प्यार किया था। उसने सिर्फ हवास का रिश्ता बनाया था मुझसे।
हमारे देश में कुछ संस्कार आज भी जिंदा है जिसके बदौलत हम शादी जैसे पबित्र रिश्ते को मानते है। बिदेशो में तो "stay together live together " का चलन भी है। सेक्सपीयर ने अपने प्यार को अलग अलग रूप में भी दिखाया है. कभी वह रोमियो के जूलियट बने तो कभी……….
प्यार से बस प्यार करो उसे सेक्स के साथ मत जोड़ो। हमारा प्यार जो कहीं बाज़ार में सेक्स के नाम पर नीलाम हो रहा है। हमे उसे ढूंढ लाना है और उसे अपनी मर्य़ादा वापस दिलानी है. तभी यह समाज वापस से एक खुबसूरत संस्कारी और सुन्दर समाज कह लायेगा। जहा लोग प्यार से बस प्यार करेंगे और रिश्तों की इज्ज़त। नाकि उसे खरीदने बाज़ार जायेंगे।

प्यार जिंदगी का वह खुबसूसूरत अहसास है जिसे हर कोइ महसूस करना चाहता हैं। एक ऐसा पवित्र जस्बाद जो हर रिश्ते की बुनियाद है। इस अहसास को अगर महसूस करों तो मानो जन्नत मिल जाती है, रब तक पहुंचने का यह सबसे आसान तरीका है। सच्चा प्यार और रब दोनों ही बडी मुश्किल से मिलते हैं। प्यार का रिश्ता बड़ा ही अटूट रिश्ता है, जो कुछ पल का नहीं जंम जंमातर का होता है। यह एक पल का नहीं एक साल का नहीं यह रिश्ता तो सदियों का होता है। प्यार किसी से कभी भी हो सकता है। प्यार के अनेक रुप होते है। मां का प्यार भाइ बहन का प्यार दोस्तों का प्यार। सबके लिए प्यार की परिभाषा अलग अलग है।  लेकिन किसी ने प्यार में सच्चे दोस्त को पाया तो किसीने दोस्त में सच्चे प्यार  को पा लिया। अंत में जीत सच्चे प्यार की ही होती है। सच्चे प्यार की तो लोग मिसाल दिया करते है। लैला मजनू, हीर रांझा, सोनी महीवाल, शाहजहान मुमताज,इनके प्यार के किस्से तो इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षर में लिखे गये थे। इनकी प्यार की ऊंचाइ को छूना सबके बस में नहीं है।

प्यार और सेक्स एक सिक्के के दो पहलू है। यह एक दूसरे के साथ ही चलते है, मगर यह जरुरी नहीं की हर रिश्ते में सेक्स हो, हर वह रिश्ता कामयाब है जो सेक्सु्अल अपील करता हो। किसी भी रिश्ते की बुनियाद प्यार और विश्वास होनी चाहिए नाकि सेक्स जैसे बाहरी जस्बाद, लेकिन आज के जमाने में प्यार के रिश्तों में मिलावट होने लगी है। लोग प्यार के नाम पर सेक्स परोसते है,उनके नजर में प्यार बस सेक्स करने का एक आसान सा जरीया हो गया है।

सेक्स को प्यार के साथ जोड़कर लोग प्यार जैसे पवित्र शब्द को रुसवा करने लगे है। प्यार का अनादर होने लगा है, लेकिन प्यार तो प्यार ही होता है। जंमों के रिश्ते बस पल भर की मौज या जरूरत बनकर रह गये है। आजकल तो हर पल रिश्ते बदलते है। पहले कहा जाता था कि हमारा समाज एक सोया हुआ समाज था, लेकिन अब यह समाज जाग चुका है। लोगों की जरूरत बढ़ गयी है, कपड़ा,रोटी व मकान के साथ साथ लोगों की आम जरूरतों में अब सेक्स भी शामिल हो गया है। जो बातें पहले बंद घरों में होती है अब वह खुले आम बाजारों में होने लगी है। पुराने जमाने की औरतों को कहां जाता था कि अगर वह अपनी पति को खुश नहीं रख पाई तो उनका जीवन व्यर्थ है। इसका क्या मतलब है…..तो क्या अगर वह अपने पति को सेक्सुअली खुश करती है तो ही उनका रिश्ता सफल है वरना नहीं ….अब सीधे औरत से पूछा जाता है कि बिस्तर पर आप अपने पति को कितने अंक देती है…..आज ढोल नगारे बजाकर यह बातें की जाती है…प्यार तो जैसे कहीं खो सा गया है।

आज लोगों को अगर प्यार है तो सिर्फ इंसान के शरीर से नाकि जस्बादों से। प्यार का रिश्ता भुख व हवस का बनकर रह गया है। प्यार तो मन से मन का मिलन है। लेकिन कुछ लोग तन से तन के मिलन को प्यार कहते है। प्यार जैसे चार दिवारों में बंद होकर रह गया है।

किसीके नाम ना बताने की शर्त पर…प्यार की यह कहानी सुनो

एक रिश्ता सो काल्ड प्यार का अगर इसे प्यार कहे तो गलत होगा। नए प्यार का अहसास था जिंदगी बहुत खुबसूरत,रंगीन और सुहानी लग रही थी..हमने साथ में काफी वक्त बिताया, ढेर सारे सपने सजाये साथ मे घुमना फिरना…लगा जैसे मेरे पैर तो जमीन पर ही नहीं है। नई जिंदगी मिल गयी हो जैसे…जीने मरने की कसमे ढेर सारे वादे किये।फिर अचानक उम्मीदें बढने लगी उसकी कामनाओं का सागर गहरा होता गया, प्यार जैसे कहीं खोने सा लगा उसे मुझसे कम मेरे जिस्म से ज्यादा प्यार होने लगा। वह मेरे पास तो आता था लेकिन मेरे लिए नहीं अपनी भुख मिटाने के लिए। मैने तो सुना था प्यार तो दो आत्माओं का मिलन है मगर यह क्या हुआ….यह प्यार नहीं एक सौदा था। तन का सौदा…धीरे धीरे मैं उससे दूर होती गई। बहुत दूर…..मैं पूछती हूं क्या यही प्यार है….मैने तो प्यार किया और उसने सौदा…….

राधा ने भी किशन से प्यार किया था, क्या उसने किशन को पाया? प्यार का दूसरा नाम त्याग, इन्तजार बलिदान और विश्वास है। किशन अंत में रुक्मिणी के ही हुए। इसका यह मतलब नहीं हुआ कि राधा का प्यार सच्चा नहीं था। आज भी लोग राधा किशन की जोडी को ही अमर मानते है और साथ में उन दोनों की ही पूजा करते है। क्योंकि राधा ने कभी किशन को पाने की कोशिश नहीं की। अगर आपका प्यार सच्चा हो तो वह अमर हो जाता है। प्यार देने का नाम है। राधा के जीबन का अर्थ किशन थे। मीरा जो किशन की दीवानी थी। लोगो की इतनी तोहमत लगाने के बाद भी उसके लबो पर सिर्फ नाम होता था तो भगबान श्री कृष्ण का। त्याग और बलिदान की मूरत बनी। अपना सारा जीबन ब्यतित किया किशन के चरणों में। जहर का प्याला भी पिया हंसते हंसते। तो यह क्या प्यार नहीं था?

एक माँ जो अपने बच्चे को नौ महीने पेट में पालती है। इतना दर्द सहती है तो क्या उस ममता में प्यार नहीं है? एक दोस्त जो अपनी दोस्ती के लिए कुछ भी कर जाता है हर दुःख सुख बांटता है तो क्या यह प्यार नहीं है? वह सब सेक्सुअली किसीसे जुडे नहीं है तो क्या वह एक दूजे से प्यार नहीं करते? उन्होंने तो परमात्मा से मिलने का रास्ता बनाया है। हमने यहाँ प्यार के कितने रंग और रूप देखे। प्यार सिर्फ ढाई आखर का एक शब्द नहीं है,  इस शब्द में पूरी दुनिया समाई है।

नाम ना बताने के शर्त पर एक और प्यार के अहसास से मिलते है।

वह आया कुछ पल के लिए। जाते जाते ढेर सारा प्यार का अहसास दे गया। एक रात आयी और चली गयी। कितने सपने सजाये लगा के मुझे भी प्यार हो सकता है, मैं भी प्यार के लायक हूं। लेकिन क्या सिर्फ एक ही रात के लिए। मैंने तो उस एक रात में अपनी पूरी दुनिया जिली, एक नयी ज़िन्दगी से मिली। क्या वह प्यार पल भर का ही था ? फिर छा गई काली अँधेरी रात। तंहाइ के बादल फिर मंडराने लगे। दे गया मुझे ज़िन्दगी भर का इंतजार। क्या वह प्यार नहीं था ? मैंने तो प्यार किया था। उसने सिर्फ हवास का रिश्ता बनाया था मुझसे।

हमारे देश में कुछ संस्कार आज भी जिंदा है जिसके बदौलत हम शादी जैसे पबित्र रिश्ते को मानते है। बिदेशो में तो "stay together live together " का चलन भी है। सेक्सपीयर ने अपने प्यार को अलग अलग रूप में भी दिखाया है. कभी वह रोमियो के जूलियट बने तो कभी……….

प्यार से बस प्यार करो उसे सेक्स के साथ मत जोड़ो। हमारा प्यार जो कहीं बाज़ार में सेक्स के नाम पर नीलाम हो रहा है। हमे उसे ढूंढ लाना है और उसे अपनी मर्य़ादा वापस दिलानी है. तभी यह समाज वापस से एक खुबसूरत संस्कारी और सुन्दर समाज कह लायेगा। जहा लोग प्यार से बस प्यार करेंगे और रिश्तों की इज्ज़त। नाकि उसे खरीदने बाज़ार जायेंगे।


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तानाशाह और उनके अजीबो-गरीब काम

कैलिग्यूला (ईसा बाद 12-41)

रोमन सम्राट कैलिग्यूला इतिहास के पन्नों पर पहले तानाशाहों में गिने जाते हैं जो कि अपने भड़कीले व्यवहार और तुनक मिजाज़ी के लिए जाने जाते हैं.

यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन में इतिहास पढ़ाने वाले वरिष्ठ व्याख्याता डॉक्टर बेनेट बताते हैं कि कैलिग्यूला ने एक बार आदेश दिया कि सारी नौंकाएं नेपल्स की खाड़ी में एक कतार में खड़ी हो जाएं ताकि वो उन पर चल कर एक एक शहर से दूसरे शहर जा सके.

कैलिग्यूला को रेस के घोडे़ बेहद पंसद थे. कहा जाता है कि उन्होंने अपने प्रिय घोड़े के लिए अलग से घर बनवाया था, जिसमें उसकी सेवा के लिए सैनिक तैनात थे, साथ ही घोडे़ को सोने के मर्तबान में शराब पिलवाई जाती थी.

यूनिवर्सिटी ऑफ एक्स्टर के प्रोफेसर पीटर वाइसमैन का मानना है कि कैलिग्यूला अच्छी तरह से जानता था कि वो क्या कर रहा है. उसने सार्वभौमिक सत्ता और ताकत के इस्तेमाल की सारी संभावनाओं को तलाशा.

फ्रांसवा डूवलियर (1907-1971)

फ्रांसवा डूवलियर का मानना था कि हर महीने की 22 तारीख को उनमें आत्माओं की ताकत आ जाती है.

हैती के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांसवा डूवलियर ने अपने चौदह साल के शासनकाल में तमाम मौकों पर अपना महिमा मंडन किया.

वो घोर अंधविश्वासी थे और उनका मानना था कि हर महीने की 22 तारीख को उनमें आत्माओं की ताकत आ जाती है.

इसलिए वो हर महीने की 22 तारीख को ही अपने आवास से बाहर निकलते थे. उनका दावा था कि 22 नवंबर 1963 को उन्हीं की आत्माओं की शक्तियों की वजह से अमरीका के राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की हत्या हुई थी.

छह बार उनकी हत्या के लिए प्रयास किये गए थे लेकिन वो हर बार बच निकले थे.

वर्ष 1971 में लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया.

इदी अमीन (1920-2003)

इदी अमीन ने खुद को फील्ड मार्शल, विक्टोरिया क्रॉस और मिलिट्री क्रॉस से भी सम्मानित किया.

सत्तर के दशक में युगांडा के शासक रहे इदी आमीन ने अपने जीवन को भरपूर जिया. खुद को उन्होंने बार-बार सम्मानित किया और पदकों का अम्बार लगा लिया.

उन्होंने खुद को फील्ड मार्शल, विक्टोरिया क्रॉस और मिलिट्री क्रॉस से भी सम्मानित किया.

उन्हें अपने आप से इतने ज्यादा मोह था कि वो खुद को क्वीन एलिजाबेथ द्वितीय के समकक्ष या उनसे बड़ा दिखाना चाहते थे.

उनका कहना था कि राष्ट्रमंडल का प्रमुख उन्हें होना चाहिए न कि महारानी को.

इस तरह की भी खबरें आती रहीं कि वो अपने राजनीतिक विरोधियों के कटे सर अपने फ्रिज में रखा करते थे.

हालांकि ये कभी साबित नहीं हुआ. एक बार उन्होंने रात के भोजन की टेबल पर अपने सलाहकार से कहा था कि मैं तुम्हारा जिगर खाना चाहता हूं, मैं तुम्हारे बच्चों को भी खाना चाहता हूं.

इदी अमीन की पांच पत्नियां और दर्जन भर बच्चे थे.

सपरमूरत नियाजोव (1940-2006)

नियाजोव ने अपनी 15 मीटर ऊंची सोने की प्रतिमा बनवाई.

तुर्कमेनिस्तान के राष्ट्रपति नियाजोव खुद को एक ऐसे तानाशाह के रूप में पेश करते थे जैसे कोहन के काल्पनिक पात्र 'डिक्टेटर' का चरित्र है.

उन्होंने अपनी 15 मीटर ऊंची सोने की परत चढ़ी प्रतिमा बनवाई थी जिसका मुख सूरज की तरफ था.

हालांकि तुर्कमेनिस्तान की अधिकांश जनता गरीबी में जीवन जी रही थी, लेकिन नियाजोवने राजधानी में एक बर्फ का महल बनवाया और रेगिस्तान के बीचोबीच एक झील के निर्माण का आदेश दिया.

उन्होंने अपने नाम पर शहर, पार्क बनवाए. यहां तक कि जनवरी महीने का नाम बदलकर उसका नामकरण अपने नाम पर कर दिया.

वर्ष 1997 में धूम्रपान छोड़ने के बाद उन्होंने अपने सारे मंत्रियों को ऐसा ही करने को कहा था.

उन्होंने नाटक, ओपेरा को तो प्रतिबंधित किया ही, साथ ही पुरुषों के लंबे बाल रखने पर प्रतिबंध लगा दिया.

सद्दाम हुसैन की तरह ही उन्होंने एक किताब लिखी . रुखनामा तुर्कमेनिस्तान के इतिहास पर उनके विचारों का संग्रह है. स्कूल और विश्वविद्यालयों में इसे पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया गया.

2006 में उनका निधन हो गया और 2011 में उनकी स्वर्ण प्रतिमा भी हटा दी गई.

किम जोंग इल (1942-2011)

किम जोंग इल खुद को कोरिया का प्रिय पिता कहलाना पसंद करते थे

उत्तरी कोरिया के किम जोंग इल आधुनिक युग के तानाशाह माने जाते हैं. वो खुद को कोरिया का प्रिय पिता यानी डियर फादर कहलाना पसंद करते थे.

किम जोंग इल ने अपनी सत्ता और ताकत का महिमामंडन के लिए सरकारी मीडिया का इस्तेमाल किया.

आधिकारिक बयान के मुताबिक जब किम जोंग इल का जन्म हुआ तो आकाश में दो इंद्रधनुष और एक चमकता सितारा दिखाई दिए.

और उनकी मृत्यु पर बर्फ से ढकी एक विशाल झील के दो टुकड़े हो गए.

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Saturday, May 12, 2012

पर्यावरण संरक्षण की अलख जगाएं

पर्यावरण, ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक अमूल्य उपहार है जो संपूर्ण मानव समाज का महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य भौतिक तत्वों – पृथ्वी, जल, आकाश, वायु एवं अग्नि से मिलकर पर्यावरण का निर्माण हुआ हैं। यदि मानव समाज प्रकृति के नियमों का भलीभाँति अनुसरण करें तो उसे कभी भी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं में कमी नहीं रहेगी। मनुष्य अपनी आकश्यकताओं की पूर्ति के लिए वायु, जल, मिट्टी, पेड-पौधों, जीव-जन्तुओं आदि पर निर्भर हैं और इनका दोहन करता आ रहा हैं।

वर्तमान युग औद्योगिकीकरण और मशीनीकरण का युग है। जहाँ आज हर काम को सुगम और सरल बनाने के लिए मशीनों का उपयोग होने लगा हैं, वहीं पर्यावरण का उल्लंघन भी हो रहा हैं। ना ही पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान दिया जा रहा है और ना ही प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक अमूल्य तत्वों का सही मायने में उपयोग किया जा रहा हैं, परिणामस्वरूप प्रकृति कई आपदाओं का शिकार होती जा रही हैं।

वर्तमान समय में मनुष्य औद्योगिकीकरण और नगरीकरण में इस तरह से गुम हो चुका हैं कि वह स्वार्थपूर्ति के लिए प्रकृति का अत्यधिक दोहन करने लगा है और पर्यावरण को असंतुलित बनाए हुए हैं। परिणाम स्वरूप मनुष्य को प्रदूषण, बाढ़, सूखा आदि आपदाओं का सामना करना पड़ता हैं। यदि मनुष्य प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य तत्वों की श्रृंखला का सुरक्षित तरीके से उपभोग करे तो पर्यावरण को संरक्षित रखा जा सकता हैं।

औद्योगिकीकरण और मशीनीकरण के युग में प्रकृति पर अत्याचार होने लगा है, परिणामस्वरूप पर्यावरण में प्रदूषण, अशुद्ध वायु, जल की कमी, बीमारियों की भरमार दिन-प्रतिदिन एक गंभीर चर्चा का विषय बनी हुई हैं, जिससे न तो मनुष्य प्रकृति को बचा पा रहा हैं और न ही खुद को । आज जहाँ मानव समाज विलासितापूर्ण जीवन की चाह लिए हुए प्रकृति का अति दोहन करता जा रहा हैं, वहीं वह अज्ञानतावश स्वयं की जान का भी दुश्मन बन चुका हैं।

पर्यावरण संरक्षण में वृक्षों का सबसे अधिक महत्व हैं। जिस तरह आज औद्योगिकीकरण के युग में वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, वहाँ आज समाजसेवी संस्थाओं को जन-चेतना को जागृत और प्रोत्साहित करते हुए वृक्षारोपण को एक अनिवार्य गतिविधि बना देना चाहिए, ताकि मनुष्य अपनी विलासिताओं के लोभ में पर्यावरण का दुरूपयोग न कर सकें।

मानव की घोर भौतिकतावादी प्रवृत्ति, तीव्र औद्योगिकरण, प्राकृतिक संसाधनों का क्रूरतापूर्ण दोहन तथा उपभोक्तावादी संस्कृति ने प्रकृति की मूल संरचना और व्यवस्था में असंतुलन पैदा कर दिया है। जिसके प्रकारों, कारणों एवं प्रभावों का वर्णन निम्नलिखित है।
प्रकार-
1. वायु प्रदूषण :- वायु में अवांछित तत्वों के प्रवेश के फलस्वरूप वायु प्रदूषण एक खतरनाक हद को पार करता जा रहा है। मोटर वाहनों, औद्योगिक संयंत्र, घरों के चूल्हों का धुआ, सी. एफ.सी. का अंधाधुंध प्रयोग इसका प्रमुख कारण है फलस्वरूप  कार्बन डाई-ऑक्साइड , कार्बन मोनो-ऑक्साइड, सल्फर डाई ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों के बढने की संभावना बढ  गयी है।

2. जल- प्रदूषण :- अंधाधुंध औद्योगिकरण के कारण इनसे निकला गंदा जल नदियों में प्रवाहित करने, तेल प्रदूषण के फलस्वरूप जलीय जीवों को खतरा, मियादी बुखार, पेचिस, पीलिया, मलेरिया, हैजा जैसे रोग मुंह बाये खड़े हैं।
3.ध्वनि प्रदूषण :- वाहनों, कारखानों , विमानों, पॉप संगीत एवं फटाकों का शोर बहरा कर देने को उद्यत है। एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार -"ध्वनि प्रदूषण के कारण महानगरों के 10 प्रतिशत लोग मन को संकेन्द्रित नहीं कर पाते, 70 प्रतिशत लोग अपने को अशांत महसूस करते हैं तथा 66 प्रतिशत लोग तनाव एवं बेचैनी महसूस करते हैं।
4. भूमि प्रदूषण :- भूमि भी प्रदूषित हो चुकी है जिससे फसलें एवं उर्बरा शक्ति प्रभावित हो रही है। रासायनिक अपशिष्ट, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, पॉलीथीन, डिटजेंट , वृक्षों की कटाई, परमाणु विस्फोट आदि से भूमि प्रदूषित हो चुकी है।
5. अंतरिक्ष प्रदूषण :- अंतरिक्ष में 500 कृत्रिम उपग्रह चक्कर काट रहे हैं जिनसे रेडियोधर्मी पदार्थों के विकिरण का खतरा बना हुआ है।
समाधान :-
1. वृक्षारोपण एवं वनों का विनाश रोकना ।
2.जैविक खाद का प्रयोग ।
3.प्रदूषण फैलाने वाले कारकों पर प्रभावी नियंत्रण ।
4. नदियों में अपशिस्ट पदार्थों के प्रवाह पर रोक।
5. जनजागरूकता अभियान ।
6.कानूनों का कठोरता एवं ईमानदारी से पालन हो |





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