Friday, May 25, 2012

अच्छाई और बुराई का बोझ

बिल्ली का एक छोटा बच्चा भी जानता है कि क्या चीज पास दिखे तो भाग जाना चाहिए और क्या नजर आए तो उसे दबोच लेना चाहिए। लेकिन हमारा बच्चा काफी बड़ा हो जाने के बाद भी ऐसी बुनियादी बातों में गलतियां कर बैठता है। ऐसा क्यों? सभी जीव अपने बच्चों को ऐसे कौशल सिखाते हैं, जो उनके जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं।

अकेला इंसान ही है जो अपने बच्चों को नैतिकता सिखाता है। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए। इसकी वजह शायद यह हो कि इंसानों का जिंदा रहना उनके निजी प्रयासों से ज्यादा एक-दूसरे की मदद और आपसी भरोसे पर निर्भर करता है। लेकिन अभी के लिए यह समझ पर्याप्त नहीं है।

हम अपने बच्चों को अपनी औकात भर अच्छा बनना सिखाते
हैं, लेकिन वास्तविक दुनिया का सामना होते ही उनकी अच्छाई उनकी दुश्मन बन जाती है। जिंदा रहने के लिए उन्हें बुराई से समझौता करना पड़ता है। बल्कि घुटने टेक कर उसके सामने गिड़गिड़ाना पड़ता है। ठीक है, हम उन्हें बुराई नहीं सिखा सकते, लेकिन समय रहते इसकी पहचान तो करा सकते हैं।

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न्याय की गति

अदालतों का कामकाज अत्यंत धीमी गति से चलने के कारण जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या बढ़ती गई है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक देश की लगभग चौदह सौ जेलों में करीब तीन लाख सत्तर हजार कैदी हैं। इनमें सत्तर फीसद विचाराधीन कैदी हैं। यह बेहद अन्यायपूर्ण स्थिति है कि बगैर अदालत से सजा हुए इतनी बड़ी संख्या में लोग बरसों-बरस कैद में रहने को विवश हों। यह स्थिति जेलों की व्यवस्था पर भी एक भारी और अनावश्यक बोझ है। इसलिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के इस सुझाव को स्वीकार किया जाना चाहिए कि जेलों में सांध्यकालीन अदालतें लगाई जाएं, ताकि छोटे-मामलों का जल्दी से निपटारा हो और विचाराधीन कैदियों की संख्या में तेजी से कमी लाई जा सके। विचाराधीन कैदियों के मामलों के निपटारे के लिए वैकल्पिक उपाय किए जाने की बात पहले भी उठी है। दो पालियों में अदालत चलाने, लोक अदालत लगा कर मामलों की सुनवाई करने से लेकर हल्के या मामूली अपराधों के आरोप में जेल में डाल दिए लोगों की सजा में कमी करने और मामलों को तेजी से निपटाने जैसी घोषणाएं की गर्इं। लेकिन अब तक ऐसे प्रयास छिटपुट तौर पर ही हो पाए हैं। अदालतों की ओर से निर्धारित तारीखों पर कई बार नौकरी या दूसरे किसी कारण से गवाहों के उपस्थित न होने के चलते सुनवाई टलती रहती है। शाम के वक्त अदालतें लगाने से न सिर्फ ज्यादा मामलों की सुनवाई संभव हो सकेगी, बल्कि गवाहों को बिना अपने काम का नुकसान किए अदालत जाने में सुविधा होगी।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश होने के नाते बालाकृष्णन की यह बात काफी   महत्त्वपूर्ण है कि कई बार लोगों को गैरजरूरी रूप से जेल में बंद कर दिया जाता है। यह भी छिपा नहीं है कि किसी आपराधिक घटना के बाद होने वाली गिरफ्तारियों के वक्त पुलिस का रवैया कई बार भेदभावपूर्ण होता है। गौरतलब है कि विचाराधीन कैदियों में सबसे ज्यादा तादाद वैसे लोगों की है जो पैसे के अभाव के कारण अपने लिए वकील या मुकदमा लड़ने का खर्च नहीं उठा पाते। इसके अलावा, ऐसे मामलों की भी कमी नहीं है जिनमें जमानती धाराओं में बंद आरोपी जमानत लेने वाला नहीं मिल पाने के कारण जेल से बाहर नहीं आ पाते। यह एक तरह से न्याय के बाद का वह अन्याय है, जिसका कारण महज किसी का गरीब होना है। इसलिए आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि गरीब कैदियों को लिए सरकार की ओर से कानूनी मदद मुहैया कराई जाए।
विचाराधीन कैदियों का मसला सिर्फ जेल के प्रबंध से जुड़ा हुआ नहीं है। उससे कहीं ज्यादा गंभीर पहलू यह है कि बड़ी तादाद में लोग सिर्फ इसलिए कैद हैं, क्योंकि फैसले लंबित हैं। कई ऐसे लोग हैं जिन पर लगे आरोप साबित भी हो जाएं तो उसके लिए जो अधिकतम सजा हो सकती है, उससे ज्यादा वक्त वे पहले ही जेल में गुजार चुके हैं। कुछ साल पहले एक खबर आई थी कि एक महिला ने करीब सैंतीस साल विचाराधीन कैदी के रूप में गुजारने के बाद जेल में ही दम तोड़ दिया था। इस संदर्भ में लगभग साढ़े चार साल पहले पचास साल पुराने एक मामले की सुनवाई के दौरान की गई सुप्रीम कोर्ट की वह टिप्पणी याद रखनी चाहिए कि अगर न्यायपालिका में लोगों का भरोसा बहाल रखना है तो लंबे समय से लटके मुकदमों के निपटारे की कोई व्यवस्था करनी होगी।


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